‘‘ हजरत मुहम्मद साहब एक धार्मिक नेता थे। लगभग उनका सम्पूर्ण जीवन इस्लाम-प्रचार ही में व्यतीत हुआ। इसलिए उनकी शिक्षा वास्तव में इस्लाम ही की शिक्षा हैं। किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि मुसलमानों के अतिरिक्त और दूसरे लोग उनकी शिक्षा से लाभ नही उठा सकते। अरब के अर्द्ध बर्बर बद्दुओं के साथ उन्होने जो उपकार किए हैं, उन्हे इतिहास भुला नहीं सकता। जो देश अब से डढ़े हजार वर्ष पहले सभ्यता और संस्कृति के नाम से भी अनभिज्ञ था, जहॉ कला-कौशल की कोर्इ पहुॅच न थी, जहॉ के लोगो का पेशों ही लूटमार, हत्या और रक्तपात था, जहॉ मूर्तिपूजा और अन्धविश्वासों का आधित्य था, वह देश आज सभ्य देशों की पहली पंक्ति में खड़ा नजर आता हैं। यह सब उन्ही के सदप्रयास का सुपरिणाम हैं। इसके इसके अतिरिक्त इस्लामी बन्धुत्व का उत्तम आदर्श स्थापित करके उन्होने दुनिया में मानव-समानता के सम्मानपूर्ण भाव को प्रोत्साहन दिया और यह एक ऐसा काम था, जिसने न केवल इस्लामी देशों की कायापलट कर दी, बल्कि अन्य देशों पर भी मुख्य प्रभाव डाला। आप (सल्ल0) का एक महान और विशेष कारनामा यह हैं कि आपने अरब से दासता की मानवता विहीन प्रथा का अन्त करने में प्रगति की और इस्लाम के अनुयायियों को उपदेश दिया कि दासों को मुक्त करना सबसे बड़ा पुण्य कार्य हैं और यह कि कोर्इ व्यक्ति पैदार्इशी दास होने के कारण धार्मिक नेता या उच्च शासक होने से वंचित नहीं किया जा सकता। जैसा कि इस्लामी इतिहास साक्षी हैं कि कर्इ पैदाइशी गुलामों ने खलीफा का उच्च पद प्राप्त किया और अपने सुकर्म और उत्तम गुणों के कारण अपने काल में इस्लाम का नेतृत्व किया । आज बीसवीं सदी में , जबकि लगभग सारी दुनिया से ‘दासप्रथा’ का अन्त हो चुका हैं, सम्भव हैं यह बात साधारण मालूम हो, लेकिन अब से चौदह सौ वर्ष पहले का चित्र अपनी ऑखों के सामनें रखकर यदि विचार किया जाए तो मानना पड़ेगा कि यह कोर्इ छोटा काम न था। इसी प्रकार के कर्इ और मुख्य कारनामें हजरत मुहम्मद साहब के जीवन से सम्बन्धित हैं, जिनका विस्तार पूर्वक वर्णन इस छोटे-से निबन्ध मे सम्भव नहीं हैं और न उसकी यहॉ आवश्यक ही हैं। यहॉ केवल इतना ही कह देना पर्याप्त हैं कि हजरत मुहम्मद साहब संसार के उन महानतम व्यक्तियों में से एक हैं जिनका जीवन-उददेश्य मानव-जाति को सत्यमार्ग दिखाना होता है। हजरत मुहम्मद साहब को अपने उददेश्य में जितनी सफलता मिली, वह इसलिए और भी प्रशंसनीय हैं कि उन्हे अरब की मरूभमि को, जहॉ इस्लामी जीवन के लिए आवश्यक आरम्भिक साधन भी एकत्र नहीं थे, अपना कार्य-क्षेत्र बनाना पड़ा और उस अर्द्ध बर्बर जाति में काम करना पड़ा, जो अशिक्षित प्रकाशहीन एवं नैतिकता और सत्यता से सर्वथा अनभिज्ञ थी।’’