जीवन, मृत्यु के पश्चात्
Author Name: सैयद अबुल आला मौदूदी

जीवन, मृत्यु के पश्चात्

मरने के बाद कोर्इ दूसरी जिन्दगी हैं या नहीं? और हैं तो कैसी है।? यह सवाल हकीकत में हमारे इल्म की पहुच से दूर हैं। इसलिए कि हमारी पास वे ऑखें नहीं जिनसे हम मौत की सीमा के उस पार झॉक कर देख सकें कि वहॉ क्या हैं और क्या नही हैं। हमारे पास वे कान, नही, जिन से हम उधर की कोर्इ आवाज सुन सकें। हम कोर्इ ऐसी मशीन भी नही रखते जिसके जरिए ये यकीन के साथ मालूम किया जा सके कि उधर कुछ हैं या नही। इसलिए जहॉ तक साइंस का ताल्लुक हैं, यह सवाल उसकी कार्य सीमा से बिलकुल बाहर हैं। जो आदमी साइंस का नाम लेकर कहता हैं कि मरने के बाद कोर्इ जिन्दगी नही हैं, वह बिल्कुल एक गैर साइन्टिफिक बात कहता हैं। साइंस की दृष्टि से न तो यह कहा जा सकता है कि कोर्इ जिन्दगी हैं और न यह कि कोर्इ जिन्दगी नही हैं। जब तक हमे इल्म का कोर्इ यकीनी और पक्का जरिया हासिल नही होता, कम से कम उस वक्त तक तो सही साइन्टिफिक बात यही हो सकती हैं कि हम मरने के बाद जिन्दगी का न इनकार करें, न इकरार।
मगर क्या अमली और व्यावहारिक जिन्दगी में हम इस साइन्टिफिक रीति को निभा सकते हैं? शायद नहीं, बल्कि वास्तव में नही। अकली हैसियत से तो यह मुमकिन हैं कि जब एक चीज को जानने के जरियें और साधन हमारे पास न हो तो उसके सिलसिले में हम इनकार और इकरार दोनो से बचे, लेकिन जब किसी चीज का संबंध हमारी अमली और व्यावहारिक जिन्दगी से हो तो हमारे लिए इसके सिवा कोर्इ रास्ता नही रहता कि या तो उसके इन्कार पर अपने काम के तरीके को कायम करें या इकरार पर । मिसाल के तौर पर एक व्यक्ति हैं जिसकों आप नही जानते, अगर उसके आपको कोर्इ मामला न करना हो तो आपके लिए यह मुमकिन हैं कि उसके र्इमानदार होने या न होने के बारे मे कोर्इ फैसला न करें। लेकिन जब आपको उससे मामला करना हो तो आप मजबूर हैं कि या तो उसे र्इमानदार समझकर मामला करें या बेर्इमान समझकर। आप अपने दिल में जरूर यह सोच सकते हैं कि जब तक उसका र्इमानदार होना साबित न हो जाए उस वक्त हम शक के साथ मामला करेंगे। लेकिन उसकी र्इमानदारी पर शक करते हुए जो मामला आप उससे करेंगे अमली तौर पर उसकी सूरत वही तो होगी जो उसकी र्इमानदारी का इनकार की शक्ल मे हो सकती थी। अत: हकीकत में इनकार और इकरार के बीच शक की हालत सिर्फ दिल और दिमाग ही में हो सकती हैं। अमली तौर तरीका कभी शक पर कायम नही हो सकता, इसके लिए तो इनकार या इकरार हर हाल में जरूरी हैं।
यह बात थोड़े-से सोच-विचार से आपकी समझ में आ सकती हैं कि मरने के बाद जिन्दगी का सवाल सिर्फ एक फलसफियाना (दार्शनिक) सवाल नही हैं, बल्कि हमारी अमली जिन्दगी से इसका बहुत गहरा संबंध हैं। हमारा अखलाकी और नैतिक व्यवहार क्या होगा, वास्तव में यह इसी सवाल पर निर्भर करता हैं। अगर मेरा यह ख्याल हो कि जिन्दगी जो कुछ हैं सिर्फ यही दुनिया की जिन्दगी हैं और इसके बाद कोर्इ दूसरी जिन्दगी नही हैं तो मेरा अखलाकी ढंग और नैतिक व्यवहार एक खास तरह का होगा। अगर मै यह ख्याल रखता हूूॅ कि इसके बाद एक दूसरी जिन्दगी भी हैं, जिसमें मुझे अपनी मौजूदा जिन्दगी का हिसाब देना होगा और वहॉ मेरा अच्छा या बुरा अन्जाम मेरे यहॉ के अच्छे या बुरे कामों के कारण होगा तो इस सूरत में यकीनन मेरा अखलाकी रवैया और नैतिक व्यवहार बिलकुल एक दूसरी ही तरह का होगा, जो पहले से बिलकुल भिन्न होगा। इसकी मिसाल यू समझिए जैसे एक व्यक्ति यह समझते हुए सफर कर रहा हैं कि उसे बस यहॉ से बम्बार्इ तक जाना हैं, और बम्बर्इ पहुचकर न सिर्फ यह कि उसका सफर हमेशा के लिए खत्म हो जाएगा, बल्कि वहॉ वह पुलिस और अदालत और हर उस ताकत की पकड़ से बाहर होगा, जो उससे किसी किस्म की पूछ-ताछ कर सकती हो। इसके विपरीत एक दूसरा व्यक्ति यह समझता हैं कि यहॉ से बम्बर्इ तक तो उसके सफर की सिर्फ यह कि उसका सफर हमेशा के लिए खत्म हो जाएगा, बल्कि वहॉ पुलिस और अदालत और हर उस ताकत की पकड़ से बाहर होगा, जो उससे किसी किस्म की पूछ-ताछ कर सकती हो। इसके विपरीत एक दूसरा व्यक्ति यह समझता हैं कि यहॉ से बम्बर्इ तक तो उसके सफर की सिर्फ एक ही मंजिल हैं। इसके बाद उसे समुद्र पार एक ऐसे देश मे जाना होगा जहॉ का बादशाह वही हैं, जो हिन्दुस्तान का बादशाह हैं और उस बादशाह के दफतर में मेरे तमाम कामों का गुप्त रिकार्ड मौजूद हैं जो मैने हिन्दुस्तान में किए हैं, और वहॉ मेरे रिकार्ड को जॉचकर फैसला किया जाएगा कि मै अपने कामों के लिहाज से किस दर्जे के लायक हू। आप आसानी से अन्दाजा कर सकते हैं कि इन दोनो व्यक्तियों का व्यवाहार और अमल कितना ज्यादा एक दूसरे से भिन्न होगा। पहला आदमी यहॉ से बम्बर्इ तक के सफर की तैयारी करेगा लेकिन दूसरे की तैयारी बाद की लम्बी मंजिलो के लिए भी होगी। पहला आदमी यह समझेगा कि नफा या नुकसान जो कुछ भी हैं, बम्बर्इ पहूचने तक हैं, आगे कुछ नही  और दूसरा यह ख्याल करेगा कि असल नफा या नुकसान सफर के पहले मरहले (चरण) में नही हैं, बल्कि आखिरी मरहले में हैं। पहला आदमी अपने कर्मो के सिर्फ उन्ही नतीजो पर नजर रखेगा। जो बम्बर्इ तक के सफर में निकल सकते है, लेकिन दूसरे आदमी की निगाह उन नतीजों पर होगी जो समुद्र पार दूसरे देश में पहुचकर सामने आएगे। जाहिर हैं कि इन दोनो व्यक्तियों के रवैये का यह फर्क उनकी राय का प्रत्यक्ष और खुला नतीजा हैं जो वे अपने सफर के बारे में रखते हैं। ठीक इसी तरह हमारी अखलाकी जिन्दगी में भी वह अकीदा या धारणा फैसलाकुन असर रखती हैं, जो हम मरने के बाद की जिन्दगी के बारे में रखते हैं। अमल के मैदान में जो कदम  भी हम उठाएगे उसकी दिशा का निर्धारण इस बात पर निर्भर करेगा कि क्या हम इस जिन्दगी को पहली और आखिरी जिन्दगी समझकर काम कर रहे हैं, या किसी बाद की जिन्दगी और उसके नतीजो को सामने रखते हैं। पहली सूरत में उसकी दिशा बिलकुल दूसरी होगी।
इससे मालूम हुआ कि मरने के बाद की जिन्दगी का सवाल एक अकली और फलसफियाना सवाल नही हैं, बल्कि यह हमारी अमली जिन्दगी का सवाल हैं। और जब बात यह हैं तो हमारे लिए इस मामले में शक और संकोच की हालत में रहने का कोर्इ मौका नहीं। शक और संकोच के साथ जो नीति और रवैया हम इस जिन्दगी में अपनाएगे वह लाजमी तौर पर इन्कार ही की नीति जैसा होगा, उससे भिन्न नहीं। इसलिए हम बहरहाल इस बात का फैसला करने पर मजबूर हैं कि क्या मरने के बाद कोर्इ और जिन्दगी हैं या नहीं अगर साइंस इसके सिलसिले में हमारी मदद नही करती तो हमे अकली और बौद्धिक दलीलों से मदद लेनी चाहिए।

अच्छा, तो अकली दलीलों के लिए हमारे पास क्या कुछ सामान हैं? हमारे सामने एक तो खुद इन्सान हैं और दूसरी चीज हैं जगत की यह विशाल व्यवस्था। हम इन्सान को इस जगत व्यवस्था (निजामें कायनात) के अन्दर रखकर देखेंगे कि जो कुछ चीजे इन्सान के अन्दर पार्इ जाती हैं, क्या उसकी सारी मॉगे जगत की इस वर्तमान व्यवस्था में पूरी हो जाती हैं या कोर्इ चीज ऐसी बची रह जाती हैं जिसके लिए किसी दूसरी तरह की व्यवस्था की जरूरत हो। देखिए, इन्सान एक तो जिस्म रखता हैं जो बहुत-सी धातुओं, क्षारों, पानी और गैसो से बना से बना हू। इसके मुकाबले मे कायनात के अन्दर भी मिटटी, पत्थर, धातुओ, नमक, गैसे, पानी और इसी प्रकार की दूसरी चीजे मौजूद हैं। इन चीजें मौजूद हैं। इन चीजों को काम करने के लिए जिन नियमो और कानूनों की जरूरत है, वे सब कायनात के अन्दर क्र्रियाशील हैं। और जिस तरह वे बाहर के वातावरण में पहाड़ो, दरियाओं और हवाओं को अपने हिस्से का काम पूरा करने का मौका दे रहे हैं, उसी तरह इन्सानी जिस्म को भी इन नियमों के अन्तर्गत काम करने का मौका हासिल हैं।

फिर इन्सान एक ऐसा अस्तित्व हैं जो आसपास की चीजों से खुराक लेकर बढ़ता और परवान चढ़ता है। इसी तरह के पेड़-पौधों और घास-फूस कायनात मे ंभी मौजूद हैं और वे नियम भी यहॉ पाए जाते हैं जो बढ़ते और परवान चढ़नेवाले जिस्मों के लिए जरूरी हैं।

फिर इन्सान एक जिन्दा वजूद हैं, जो अपने इरादे से हरकत करता हैं, अपनी खुराक खुद अपनी कोशिशों से हासिल करता हैं। अपनी हिफाजत आप करता हैं और अपनी जाति और वंश को बाकी रखने का प्रबंध करता हैं। कायनात में इस तरह के दूसरे बहुत-से जीव भी मौजूद हैं। जमीन पर पानी और हवा में बेशुमार प्राणी पाए जाते हैं और वे नियम भी पूरे-पूरे तौर पर यहॉ अपना काम कर रहें हैं जो इन जानदारों के सारे कार्यो पर हावी होने के लिए काफी हैं।

इन सबसे उपर इन्सान एक और किस्म का वुजूद भी रखता है जिसे हम अखलाकी वुजूद (नैतिक अस्तित्व) कहते हैं। इन्सान के अन्दर भलार्इ और बुरार्इ का एहसास हैं, भले और बुरे की पहचान हैं, भलार्इ और बुरार्इ करने की ताकत हैं और उसकी फितरत यह चाहती हैं कि भलार्इ का अच्छा और बुरार्इ का बुरा नतीजा समाने आए।
इन्सान जुल्म और इन्साफ, सच्चार्इ और झूठ, सत्य और असत्य, रहम और बेरहमी, एहसान और एहसान-फरामोशी, दानशीलता और कंजूसी, अमानत और खियानत और ऐसे ही विभिन्न नैतिक गुणों के बीच फर्क करता हैं। ये गुण अमली तौर पर उसकी जिन्दगी में पाए जाते हैं और ये केवल ख्याली और काल्पनिक चीजे नही हैं, बल्कि अमली तौर पर इनके प्रभाव इन्सानी सभ्यता और संस्कृति पर पड़ते हैं। इसलिए इन्सान की फितरत जिसकों लेकर वह पैदा हुआ हैं, यह चाहती है कि जिस तरह उसके कर्मो के भौतिक नतीजे सामने आते हैं, उसी तरह नैतिक परिणाम भी सामने आएॅ। लेकिन जगत की व्यवस्था पर गहरी निगाह डालकर देखिए, क्या इस व्यवस्था में इन्सानी कर्मो के नैतिक परिणाम पूरी तरह प्रकट हो सकते हैं? मैं आपको यकीन दिलाता हू कि यहॉ इसकी संभावना नही हैं, इसलिए कि यहॉ कम से हमारी जानकारी की हद कोर्इ दूसरी ऐसी मखलूक नही पार्इ जाती जो अखलाकी वुजूद रखती हो। जगत की सारी व्यवस्था भौतिक कानूनों के तहत चल रही हैं, अखलाकी कानून किसी तरह काम करता नजर नही आता । यहॉ रूपये में वजन और कीमत हैं मगर सच्चार्इ मे न वजन हैं न कीमत। यहॉ आम की गुठली से हमेशा आम पैदा होता हैं, मगर हक और सत्य का बीज बोनेवाले पर कभी फूलों की बारिश होती हैं और कभी, बल्कि अक्सर, जूतियों की । यहॉ भौतिक तत्वों के लिए निश्चित तयशुदा कानून  हैं, जिनके मुताबिक हमेशा निश्चित नतीजे निकलते हैं, मगर नैतिक तत्वों के लिए कोर्इ निश्चित कानून नही हैं कि उनके कार्यशाील होने से हमेशा निश्चित नतीजा निकल सके। भौतिक कानून के क्रियाशील होने की वजह से नैतिक परिणाम कभी तो निकल ही नही सकते, कभी निकलते हैं तो सिर्फ उस हद तक जिसकी इजाजत भौतिक कानून दें दें, और अक्सर ऐसा भी होता हैं कि अखलाक एक कार्य से एक खास नतीजा निकलने का तकाजा करता हैं मगर भौतिक कानून की दखलअन्दाजी से नतीजा बिलकुल उलटा निकल आता हैं। इन्सान ने खुद अपनी सांस्कृतिक और राजनीतिक व्यवस्था के जरिए से थोड़ी-सी कोशिश इसकी की हैं कि इन्सानी कर्मो के अखलाकी नतीजों एक तयशुदा जाबते के मुताबिक सामने आ सकें। मगर यह कोशिश बहुत सीमित पैमाने पर हैं और बेहद अधूरी हैं। एक तरफ भौतिक कानून उसको सीमित और अपूर्ण बनाते हैं और दूसरी तरफ इन्सान की अपनी बहुत-सी कमजोरियॉ इस प्रबंध की त्रुटियों को और अधिक बढ़ा देती है।

मै अपनी बात को कुछ मिसालों से स्पष्ट करूॅगा। देखिए, एक व्यक्ति अगर किसी दूसरे व्यक्ति का दुश्मन हो और उसके घर में आग लगा दे तो उसका घर जल जाएगा। यह उसके कर्म का भौतिक नतीजा हैं। उसका अखलाकी नतीजा यह होना चाहिए कि उस व्यक्ति को उतनी ही सजा मिले, जितना उसने एक खानदान को नुकसान पहुचाया हैं। मगर इस नतीजे का जाहिर होना इस बात पर निर्भर करता हैं कि आग लगानेवाले का सुराग मिले। वह पुलिस के हाथ आ सके, उसपर जुर्म साबित हो, अदालत पूरी तरह अन्दाजा कर सके कि आग लगने से उस खानदान को और उसकी आइन्दा नस्लो को ठीक-ठीक कितना नुकसान पहुचा हैं। और फिर इन्साफ के साथ उस अपराधी को उतनी ही सजा़ दें। अगर इन शर्तो में से कोर्इ शर्त भी पूरी न हो, तो अखलाकी नतीजा या तो बिलकुल ही जाहिर न होगा या उसका सिर्फ एक थोड़ा-सा हिस्सा जाहिर होकर रह जाएगा। और यह भी संभव हैं कि अपने दुश्मन को बर्बाद करके वह व्यक्ति दुनिया में मजे से फूलता-फलता रहे।

इससे बड़े पैमाने पर एक और मिसाल लीजिए। कुछ लोग अपनी कौम में असर पैदा कर लेते हैं और सारी कौम उनके कहे पर चलने लगती हैं। इस स्थिति से फायदा उठाकर वे लोगो में जातिवाद को भड़का देते हैं और उनमे देश विजय करते की भावना पैदा कर देते हैं। फिर वे आसपास की कौमों और देशो से लड़ार्इ छेड़ देते हैं। इस तरह लाखों इन्सानों की मौत के घाट उतार देते हैं। देश के देश तबाह कर डालते हैं। करोड़ो इन्सानों को पस्त और जलील जिन्दगी गुजारने पर मजबूर कर देते हैं और मानव इतिहास पर इन कार्यवाइयों का इतना जबरदस्त असर पड़ता हैं, जिसका सिलसिला आइन्दा सैकड़ों साल तक कितनी ही पीढ़ियो और नस्ली में फैसला जाएगा। क्या आप समझते हैं कि इन कुछ लोगो ने जो अपराध किया हैं, उसकी उचित और न्यायपूर्ण सजा उनको कभी इस दुनिया में मिल सकती हैं। जाहिर हैं कि अगर बोटियॉ भी नोच डाली जाए, अगर उनको जिन्दा डाला जाए, या कोर्इ ऐसी सजा दी जाए जो इन्सान के बस में हैं, तब भी किसी तरह वे उस नुकसान के बराबर सजा नही पा सकते, जो उन्होने करोड़ो इन्सानों को और उनकी आइन्दा बेशुमार नस्लो को पहुचाया हैं। मौजूदा जगत-व्यवस्था जिन भौतिक कानूनो पर चल रही हैं, उनके तहत किसी तरह यह संभव नही हैं कि वे अपने जुर्म के बराबर सजा पा सकें।

इसी तरह उन भले और नेक इन्सानों को लीजिए, जिन्होने मानव-जाति को हक और सच्चार्इ की तालीम दी और हिदायत की रौशनी दिखार्इ, जिनकी वजह से बेशुमार इन्सानी नस्लें सदियों से फायदा उठा रही हैं और न मालूम आइन्दा कितनी सदियो तक उठाती चली जाएॅगी। क्या यह संभव हैं कि ऐसे लोगो की सेवाओं और खिदमतों का पूरा बदला उनको इसी दुनिया में मिल सके?
क्या आप सोच सकते हैं कि मौजूदा भौतिक कानून की सीमाओं के अन्दर एक व्यक्ति अपने उस अमल का पूरा बदला हासिल कर सकता हैं, जिसका असर उसके मरने के बाद हजारों साल तक और बेशुमार इन्सानों तक फैल गया हो?

जैसा कि मै अभी बयान कर चुका हैं, एक तो जगत की मौजूदा व्यवस्था जिन नियमों पर चल रही हैं, उनके अन्दर इतनी गुंजाइश ही नही हैं कि इन्सानी कर्मो के नैतिक नतीजे पूरी तरह निकल सके। दूसरे यहॉ कुछ साल की जिन्दगी में इन्सान जो अमल करता हैं, उसके असर का सिलसिला इतना फैला हुआ होता हैं और इतनी मुददत तक जारी रहता है कि सिर्फ उसी के पूरे नतीजे हासिल करने के लिए हजारों, बल्कि लाखों साल की जिन्दगी चाहिए। और कुदरत के मौजूदा कानूनों के तहत इन्सान को इतनी लम्बी जिन्दगी मिलनी नामुमकिन हैं। इससे मालूम हुआ कि इन्सानी अस्तित्व के खाकी (पार्थिव), उज़्वी (अवश्यम्भावी) और हैवानी (जैव) तत्वों के लिए तो मौजूदा भौतिक जगत (Physical world) और उसके भौतिक कानून काफी हैं, लेकिन उसके नैतिक तत्व के लिए यह दुनिया बिलकुल नाकाफी हैं। इसके लिए तो एक अन्य जगत व्यवस्था चाहिए, जिसमें शासकीय कानून (Governing law) अखलाक का कानून हो और भौतिक कानून उसके मातहत केवल मददगार की हैसियत से काम करें, जिससे जिन्दगी सीमित न हो, बल्कि असीमित हो। जिसमें वे तमाम अखलाकी नतीजे जो यहॉ नही निकल सके हैं या उलटे निकले हैं, अपनी सही सूरत मे पमरी तरह सामने आ सके। जहॉ सोने और चॉदी के बजाए नेकी और सच्चार्इ मे वनज और कीमत हो। जहॉ आग सिर्फ उस चीज को जलाए जो नैतिक दृष्टि से जलने के लायक हो, जहॉ ऐश और आराम उसको मिले जो नेक और भला हो और मुसीबत उसके हिस्से मे आए जो बुरा हो। अक्ल चाहती हैं और फितरत मुतालबा करती हैं कि एक ऐसी जगत-व्यवस्था जरूर होनी चाहिए।

जहॉ तक अकली दलील और तर्क का सम्बन्ध हैं, वह हमको सिर्फ, ‘‘ होना चाहिए’’ की हद तक ले जाकर छोड़ देता हैं। अब रहा यह सवाल कि क्या वास्तव मे कोर्इ ऐसी दुनिया हैं भी, तो हमारी अक्ल और हमारा दोनो इसका फैसला करने में असमर्थ हैं। यहॉ कुरआन हमारी मदद करता हैं। वह कहता हैं। वह कहता हैं कि तुम्हारी अक्ल और तुम्हारी फितरत जिस का मुतालबा करती हैं,

हकीकत में वह होकर रहेगी। मौजूदा जगत-व्यवस्था जो कि भौतिक कानूनो पर बनी हैं, एक वक्त मे तोड़ डाली जाएगी। उसके बाद एक दूसरी व्यवस्था का निर्माण होगा, जिसमें जमीन और आसमान और सारी चीजे एक दूसरे ढंग पर होगी। फिर अल्लाह तआला तमाम इन्सानों को तो शुरू से दुनिया से कियामत तक पैदा हुए थे, दोबारा पैदा कर देगा और एक साथ उन सबको अपने सामने जमा करेगा। वहॉ एक-एक व्यक्ति का, एक-एक जाति का और पूरी इन्सानियत का रिकार्ड किसी गलती और और कमी-बेशी के बगैर सुरक्षित होगा। हर व्यक्ति के एक-एक अमल का जितना असर दुनिया में हुआ हैं, उसकी पूरी तफसील मौजूद होगी। वे तमाम नस्ले गवाहों में खड़ी होगी, जो उस असर से प्रभावित हुर्इ।

एक-एक कण (ज़र्रा) जिसपर इन्सान की बातों और कामो के चिहन अंकित होंगे अपनी दास्तान स्वयं सुनाएगा। खुद इन्सान के हाथ, पाव, ऑख, जबान और सारे गवाही देंगे कि उनसे उसने किस तरह काम लिया। फिर इस तफसील और विवरण पर वह सब से बड़ा हाकिम पूरे इन्साफ के साथ फैसला करेगा कि कौन कितने इनाम के योग्य हैं और कौन कितनी सजा का। यह इनाम और यह सजा दोनो चीजे इतने बड़े पैमाने पर होगी, जिसका कोर्इ अन्दाजा मौजूदा दुनिया के सीमित पैमाने के लिहाज से नही किया जा सकता। वहॉ वक्त और जगह के मेआर (माप-दण्ड) कुछ और होंगे। वहॉ के मान और माप कुछ और होंगे। वहॉ के कुदरत के कानून किसी और ही प्रकार के होंगे। इन्सान की जिन नेकियों और भलाइयों से दुनिया हजारों साल तक प्रभावित रही हैं, वहॉ वह उन नेकियों का भरपूर बदला वुसूल कर सकेगा, बगैर इसके कि मौत, बीमारी, बुढ़ापा और उसके ऐश और आराम का सिलसिला तोड़ सकें। और इन्सान की जिन बुरार्इयों के असरात दुनिया में हजार साल तक और बेशुमार इन्सानों तक फैसते रह हैं, वह उनकी पूरी सजा भुगतेगा बगैर इसके कि मौत और बेहोशी आकर उसे तकलीफ से बचा सके।

ऐसी एक जिन्दगी और ऐसी एक दुनिया को जो लोग असंभव समझते हैं, मुझे उनके जेहन की तंगी पर तरस आता हैं। अगर हमारी मौजूद जगत-व्यवस्था का मौजूदा प्राकृतिक नियमों के साथ मौजूद होना सम्भव हैं तो आखिर एक दूसरी जगत-व्यवस्था का दूसरे कानूनो के साथ वुजूद में आना क्यो असंभव हैं? हॉ यह बात कि सचमुच ऐसा जरूर होगा तो इसका फैसला न दलील से हो सकता हैं और न इल्मी सुबूत से, इसके लिए तो ‘र्इमान बिल गैब’ (परोक्ष पर विश्वास) की जरूरत हैं।