इस्लाम और आतंक
Author Name: इस्लाम आतंक या आदर्श: स्वामी लक्ष्मीशंकराचार्य

इस्लाम और आतंक: अब इस्लाम को विस्तार से जानने के लिए इस्लाम की बुनियाद कुरआन की ओर चलते हैं।
इस्लाम, आतंक हैं या आदर्श? यह जानने के लिए मैं कुरआन मजीद की कुछ आयते दे रहा हूं जिन्हे मैने मौलाना फतह मुहम्मद खां जालन्धरी द्वारा अनुवादित और महमूद एण्ड कम्पनी मरोल, पार्इप लाइन, मुम्बार्इ-59 से प्रकाशित कुरआन मजीद से लिया हैं।

पाठक इस बात को ध्यान में रखें कि कुरआन मजीद के अनुवाद में यदा-कदा (बड़े ब्रेकिट) शब्दों की व्याख्या के लिए लगाए गए हैं। ये ब्रेकिट लेखक की ओर से हैं।

यह बात ध्यान देने योग्य हैं कि कुरआन मजीद का अनुवाद करते समय इस बात का विशेष ध्यान रखना पड़ता हैं कि किसी भी आयत का भावार्थ जरा भी बदलने न पाए, क्योंकि किसी भी कीमत पर यह बदला नही जा सकता। इसी लिए अलग-अलग भाषाओं में अलग-अलग अनुवादकों द्वारा कुरआन मजीद के किए अनुवाद का भाव एक ही रहता हैं। गैर-मुस्लिम भार्इ यदि इस अनुवाद के कठिन शब्दों को न समझ पाएं तो वे मधुर सन्देश संगम, र्इ-20, अबुल-फ़ज्ल इंक्लेव, जामिया नगर, नर्इ दिल्ली-25 द्वारा प्रकाशित और मौलाना मुहम्मद खां द्वारा अनुवादित पवित्र कुरआन का भी सहारा ले सकते हैं।

कुरआन की शुरूआत ‘बिसमिल्लाहिर्रहमानिर्ररहीम’ से होती हैं, जिसका अर्थ हैं-’शुरू अल्लाह का नाम लेकर, जो बड़ा कृपालु अत्यन्त दयालु हैं।

ध्यान दें। ऐसा अल्लाह, जो बड़ा कृपालु और अत्यन्त दयालु हैं वह ऐसे फ़रमान कैसे जारी कर सकता हैं, जो किसी को कष्ट पहुंचाने वाले हों अथवा हिंसा या आतंक फैलाने वाले हों? अल्लाह की इसी कृपालुता और दयालुता का पूर्ण प्रभाव अल्लाह के पैगम्बर मुहम्मद (सल्ल0) के व्यावहारिक जीवन में देखने को मिलता हैं। कुरआन की आयतों से व पैगम्बर मुहम्मद (सल्ल0) की जीवनी से पता चलाता हैं कि मुसलमानों को उन काफिरों से लड़ने का आदेश दिया गया जो आक्रमणकारी थे,
अत्याचारी थे। यह लड़ार्इ अपने बचाव के लिए थी। देखें कुरआन मजीद में अल्लाह के आदेश :


और (ऐ मुहम्मद उस वक्त को याद करो) जब काफिर लोग तुम्हारे बारे में चाल चल रहे थे कि तुमको कैद कर दें या जान से मार डालें या (वतन से) निकाल दे ंतो (इधर से) वे चाल चल रहे थे और (उधर) खुदा चाल रहा था और खुदा सबसे बेहतर चाल चलनेवाला हैं। (कुरआन, सूरा-8, आयत -30)

‘‘ ये वे लोग है कि अपने घरो से ना-हक निकाल दिए गए, (उन्होने कुछ कुसूर नही किया)। हां, ये कहते हैं कि हमारा परवरदिगार खुदा हैं और अगर खुदा लोगो को एक-दूसरो से न हटाता रहता तो (राहिबो के) पूजा-घर और (र्इसाइयों के) गिरजे और (यहूदियों की) और (मुसलमान की) मस्जिदें, जिनमें खुदा का बहुत-सा जिक्र किया जाता हैं, गिरार्इ जा चुकी होती। और जो शख्स खुदा की मदद करता करता हैं, खुदा उसकी जरूर मदद करता हैं। बेशक खुदा ताकतवाला और गालिब यानी प्रभुत्वशाली हैं।’’      (कुरआन, सूरा-22, आयत-40)

‘‘ये क्या कहते हैं कि इसने कुरआन खुद से बना लिया हैं? कह दो कि अगर सच्चे हो तो तुम भी ऐसी दस सूरतें बना लाओं और खुदा के सिवा जिस-जिस को बुला सकते हो, बुला भी लो।’’        (कुरआन, सूरा-11, आयत-13)

‘‘(ऐ पैगम्बर !) काफिरों का शहरों मे (शानों-शौकत के साथ) चलना-फिरना तुम्हे धोखा न दें।’’ (कुरआन, सूरा-3, आयत-196)

‘‘जिन मुसलमानों से (खामखाह) लड़ार्इ की जाती है, उनको इजाजत हैं (कि वे भी लड़े), क्योकि उन पर जुल्म हो रहा हैं और खुदा (उन की मदद करेगा, वह) यकीनन उनकी मदद पर कुदरत रखता है।’’ (कुरआन, सूरा-22, आयत-39)

‘‘और उनको (यानी काफिर कुरैश को) जहां पाओं, कत्ल कर दो और जहां से उन्होने तुमको निकाला हैं (यानी मक्का से) वहां से तुम भी उनको निकाल दो।’’(कुरआन,सूरा-2, आयत-191)

‘‘जो लोग खुदा और उसके रसूल से लड़ार्इ करें और मुल्क मे फसाद करने को दौड़ते फिरें, उनकी यह सजा हैं कि कत्ल कर दिए जाएं या सूली चढ़ा दिएं या उनके एक-एक तरफ के हाथ और एक-एक तरफ के पांव काट दिए जाएं। यह तो दुनिया में उनकी रूसवार्इ हैं और आखिरत (यानी कियामत के दिन) में उनकी रूसवार्इ हैं और आखिरत (यानी कियामत के दिन) में उनके लिए बड़ा (भारी) अजाब (तैयार) हैं।
हां, जिन लोगो ने इससे पहले कि तुम्हारे काबू आ जाएं, तौबा कर ली, तो जान रखो कि खुदा बख्शनेवाला, मेहरबान हैं। ‘‘    (कुरआन, सूरा-5, आयत-33, 34)

इस्लाम के बारे में झूठा प्रचार किया जाता है कि कुरआन में अल्लाह के आदेशों के कारण ही मुसलमान लोग गैर-मुसलमानों का जीना हराम कर देते है, जबकि इस्लाम मे कही भी निर्दोषों से लड़ने की इजाजत नही हैं, भले ही वे काफिर या मुशरिक या दुश्मन ही क्यो न हों। विशेष रूप से देखिए अल्लाह के ये आदेश:

‘‘जिन लोगों ने तुमसे दीन (धर्म) के बारे में जंग नही की और न तुम को तुम्हारे घरो से निकाला, उनके साथ भलार्इ और इंसाफ का सुलूक करने से खुदा तुमको मना नही करता। खुदा तो इंसाफ करनेवालों को दोस्त रखता हैं। ‘‘ (कुरआन, सूरा-60, आयत-8)

‘‘खुदा उन्ही लोगो के साथ तुमको दोस्ती करने से मना करता हैं, जिन्होने तुम से दीन के बारे मे लड़ार्इ की और तुमको तुम्हारे घरो से निकाला और तुम्हारी निकालने मे औरो की मदद की, तो जो लोग ऐसों से दोस्ती करेंगे, वही जालिम हैं।’’ (कुरआन, सूरा-60, आयत-9)

इस्लाम मे दुश्मन के साथ भी ज्यादती करला मना है, देखिए:

‘‘और जो लोग तुमसे लड़ते हैं, तुम भी खुदा की राह मे उनसे लड़ो, मगर ज्यादती (अत्याचार) न करना कि खुदा ज्यादती करनेवालो को दोस्त नही रखता।’’(कुरआन, सूरा-2, आयत-190)

‘‘ये खुदा की आयते है, जो हम तुमको सेहत के साथ (यानी ठीक-ठीक) पढ़कर सुनाते हैं और अल्लाह अहले-आलम (अर्थात् लोगो) पर जुल्म नही करना चाहता।’’ (कुरआन,सूरा-3, आयत-108)

इस्लाम का प्रथम उद्देश्य दुनिया में शान्ति की स्थापना हैं, लड़ार्इ तो अन्तिम विकल्प हैं और यही तो आदर्श धर्म हैं, जो कुरआन की नीचे दी गर्इ इस आयत मे दिखार्इ देता हैं:

‘‘(ऐ पैग़म्बर)! कुफफार से कह दो कि अगर वे अपने फेलों (कर्मो) से बाज आ जाएं, तो जो हो चुका, वह उन्हे माफ कर दिया जाएगा और अगर फिर (वही हरकते) करने लगेंगे तो अगले लोगो का (जो) तरीका जारी हो चुका है (वही उनके हक में बरता जाएगा)।’’    (कुरआन, सूरा-8, आयत-38)

इस्लाम मे दुश्मनों के साथ भी सच्चा न्याय करने का आदेश, न्याय का सर्वोच्च आदर्श प्रस्तुत करता हैं। इसे नीचे दी गर्इ आयत मे ंदेखिए:

‘‘ ऐ र्इमानवालो! खुदा के लिए इंसाफ की गवाही देने के लिए खड़े हो जाया करो और लोगो की दुश्मनी तुमकों इस बात पर तैयार न करे कि इंसाफ छोड़ दो। इंसाफ किया करो कि यही परहेजगारी की बात हैं और खुदा से डरते रहो। कुछ शक नही कि खुदा तुम्हारे तमाम कामों से खबरदार हैं।’’ (कुरआन, सूरा-5, आयत-8)

इस्लाम मे किसी निर्दोष की हत्या की इजाजत नही हैं। ऐसा करनेवाले की एक ही सजा है, खून के बदले खून। लेकिन यह सजा केवल कातिल को ही मिलनी चाहिए और इसमें ज्यादती मना हैं। इसे ही तो कहते है सच्चा इंसाफ। देखिए नीचे दिया गया अल्लाह का यह आदेश:

‘‘और जिस जानदार का मारना खुदा ने हराम किया हैं, उसे कत्ल न करना मगर जायज तौर पर (यानी शरीअत के फतवे (ओदश) के मुताबिक) और जो शख्स जुल्म  से कत्ल किया जाए हमने उसके वारिस को इख्तियार दिया है (कि जालिम कातिल से बदला ले) तो उसको चाहिए कि कत्ल(के किसास) में ज्यादती न करे कि वह मंसूर व फतहयाब हैं।’’ (कुरआन,सूरा-17, आयत-33)

इस्लाम देश में हिंसा (फसाद) करने की इजाजत नही देता। देखिए अल्लाह का यह आदेश:

‘‘लोगो को उनकी चीजें कम न दिया करो और मुल्क में फसाद न करते फिरों।’’(कुरआन,सूरा-26, आयत-183)

जलिमों को अल्लाह की चेतावनी:

‘‘ जो लोग खुदा की आयतों (आदेशो) को नही मानते और नबियों (पैगम्बरों) को ना-हक कत्ल करते रहे हैं और जो इंसाफ करने का हुक्म देते हैं, उन्हे भी मार डालते हैं, उनको दु:ख देनेवाले अजाब की खुशखबरी सुना दों।’’ (कुरआन, सूरा-3, आयत-21)

सत्य के लिए कष्ट सहने वाले, लड़ने-मरनेवाले र्इश्वर की कृपा के पात्र होंगे, उसके प्रिय होंगें:

‘‘ तो उनके परवरदिगार ने उनकी दुआ कबूल कर ली। (और फरमाया कि) मैं किसी अमल करनेवाले के अमल को, मर्द हो या औरत, जाया नही करता। तुम एक दूसरे की जिन्स हो, तो जो लोग मेरे लिए वतन छोड़ गए और अपने घरो से निकाले गए और सताए गए और लड़े और कत्ल किए गए मैं उनके गुनाह दूर कर दूंगा और उनको बहिश्तों में दाखिल करूंगा, जिनके नीचे नहरे बह रही हैं। (यह) खुदा के यहां से बदला हैं और खुदा के यहां अच्छा बदला हैं।’’(कुरआन,सूरा-3,आयत-195)


इस्लाम को बदनाम करने के लिए लिख-लिखकर प्रचारित किया गया कि इस्लाम तलवार के बल पर प्रचारित व प्रसारित मजहब है।मक्का सहित सम्पूर्ण अरब व दुनियाके अधिकांश मुसलमान, तलवार, के जोर पर ही मुसलमान बनाए गए थे, इस तरह इस्लाम का प्रसार जोर-जबरदस्ती से हुआ।
जबकि इस्लाम में किसी को जोर-जबरदस्ती से मुसलमान बनाने की सख्त मनाही हैं। देखिए कुरआन मजीद में अल्लाह के ये आदेश:

‘‘ और अगर तुम्हारा परवरदिगार (यानी अल्लाह) चाहता तो जितने लोग जमीन पर हैं, सबके सब र्इमान ले आते । तो क्या तुम लोगो पर जबरदस्ती करना चाहते हो कि वे मोमिन (यानी मुसलमान) हो जाएं।’’(कुरआन,सूरा-10,आयत-99)

‘‘(ऐ पैगम्बर! इस्लाम के इन मुंकिरों (नास्तिको) से) कह दो कि ऐ काफिरों! जिन (बुतों) को तुम पूजते हो, उनको मैं नही पूजता और जिस (खुदा) की मैं इबादत करता हूं, उसकी तुम इबादत नही करते, और (मैं फिर कहता हूं कि) जिनकी तुम पूजा करते हो, उनकी मैं पूजा करने वाला नही हूं। और न तुम उसकी बन्दगी करनेवाले (मालूम होते) हो, जिसकी मैं बन्दगी करता हूं। तुम अपने दी (धर्म) पर, मैं अपने दीन पर।’’ (कुरआन, सूरा-109,आयत-1-6)
‘‘ऐ पैगम्बर!अगर ये लोग तुमसे झगड़ने लगे, तो कहना कि मैं और मेरी पैरवी करनेवाले तो खुदा के फरमाबरदार (अर्थात आज्ञाकारी) हो चुके और अहले-किताब और अनपढ़ लोगो से कहो कि क्या तुम भी (खुदा के फरमाबरदार बनते और) इस्लाम लाते हो? अगर ये लोग इस्लाम ले आएं तो बेशक हिदायत पा ले और अगर (तुम्हारा कहा) न माने, तो तुम्हारा काम सिर्फ खुदा का पैगाम पहुंुचा देना हैं। और खुदा (अपने) बन्दो को देख रहा हैं।        (कुरआन, सूरा-3, आयत-20)

‘‘कह दो कि ऐ अहले-किताब! ज्ो बात हमारे और तुम्हारे दर्मियान एक ही (मान ली गर्इ) हैं, उसकी तरफ आओं, वह यह कि खुदा के सिवा हम किसी की इबादत (पूजा) न करे और उसके साथ किसी चीज को शरीक (यानी साझी) न बनाएं और हममे से कोर्इ किसी को खुदा के सिवा अपना कारसाज न समझे। अगर ये लोग (इस बात को) न माने तो (उनसे) कह दो कि तुम गवाह रहो कि हम (खुदाके) फरमांबरदार हैं।        (कुरआन,सूरा-3,आयत 64)

इस्लाम मे जोर-जबरदस्ती से धर्म-परिवर्तन की मनाही के साथ-साथ इससे भी आगे बढ़कर किसी भी प्रकार की जोर-जबरदस्ती की इजाजत नही है। देखिए अल्लाह का यह आदेश:

‘‘दीने-इस्लाम (इस्लाम धर्म) में जबरदस्ती नही हैं।’’
                        (कुरआन,सूरा-2,आयत-256)

जो बुरे काम करेगा और असत्य नीति अपनाएगा मरने के बाद आनेवाले जीवन मे उसका फल भोगेगा:

‘‘हां, जो बुरे काम करे और उसके गुनाह (हर तरफ से) उसको घेर लें तो ऐसे लोग दोजख (में जाने) वाले हैं। (और) वे हमेशा उसमें (जलते) रहेंगे।’’(कुरआन, सूरा-2,आयत-81)

निष्कर्ष:पैगम्बर मुहम्मद (सल्ल0) की जीवनी व कुरआन मजीद की इन आयतों को देखने के बाद स्पष्ट हैं कि हजरत मुहम्मद (सल्ल0) की करनी और कुरआन की कथनी मे कही भी आतंकवाद नही हैं।

इससे सिद्ध होता हैं कि इस्लाम की अधूरी जानकारी रखनेवाली ही अज्ञानता के कारण इस्लाम को आतंकवाद से जोड़ते हैं।

पैम्फलेट मे लिखी पहले क्रम की आयत हैं:
                        ‘‘फिर, जब हराम के महीने बीत जाएं, तो ‘मुशरिकों’ को जहां कही पाओ कत्ल करो, और पकड़ो, और उन्हे घेरो, और हर घात की जगह उनकी ताक मे बैठो। फिर यदि वे ‘तौबा’ कर ले, नमाज कायम करें और जकात दे, तो उनका मार्ग छोड़ दो। नि:सन्देह अल्लाह बड़ा क्षमाशील और दया करने वाला हैं।        (कुरआन,सूरा-9,आयत-5)

इस आयत के संदर्भ में-जैसा कि हजरत मुहम्मद (सल्ल0) की जीवनी से स्पष्ट हैं कि मक्का में और मदीना जाने के बाद भी मुशरिक काफिर कुरैश, अल्लाह के रसूल (सल्ल0) के पीछे पड़े हुए थे। वे मुहम्मद (सल्ल0) को और सत्य धर्म इस्लाम को समाप्त करने के लिए हर सम्भव कोशिश करते रहते। काफिर कुरैश ने अल्लाह के रसूल को कभी चैन से बैठने नही दिया। वे उनको सदैव सताते ही रहे। इसके लिए वे सदैव लड़ार्इ की साजिश रचते रहते।

अल्लाह के रसूल (सल्ल0) के हिजरत के छठवें साल जीकादा महीने में आप (सल्ल0) सैकड़ो मुसलमानों के साथ हज के लिए मदीना से मक्का रवाना हुए। लेकिन मुनाफिकों (यानी कपटाचारियों) ने इसकी खबर कुरैश को दे दी।
कुरैश पैगम्बर मुहम्मद (सल्ल0) को घेरने का कोर्इ मौका हाथ से जाने न देते इस बार भी वे घात लगाकर रस्ते मे बैेठ गए। इसकी खबर मुहम्मद (सल्ल0) को लग गर्इ। आपने रास्ता बदल दिया और मक्का के पास हुदैबिया कुएं के पास पड़ाव डाला। कुए के नाम पर ही इस जगह का नाम हुदैबिया था।

जब कुरैश को पता चला कि मुहम्मद अपने अनुयायी मुसलमानों के साथ मक्का के पास पहुंच चुके हैं और हुदैबिया पर पड़ाव डाले हुए हैं, तो काफिरो ने कुछ लोगो को आपकी हत्या के लिए हुदैबिया भेजा, लेकिन वे सब हमले से पहले ही मुसलमानों के द्वारा पकड़ लिए गए और अल्लाह के रसूल (सल्ल0) के सामने लाए गए। लेकिन आपने उन्हे गलती का एहसास कराकर माफ कर दिया।

इसके बाद हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) ने लड़ार्इ-झगड़ा, खून-खराबा टालने के लिए हज़रत उस्मान (रजि0) का कुरैश से बात करने के लिए भेजा। लेकिन कुरैश ने हज़रत उस्मान (रजि0) को कैद कर लिया। इधर हुदैबिया में पड़ाव डाले अल्लाह के रसूल (सल्ल0) को खबर लगी कि हज़रत उस्मान (रजि0) कत्ल कर दिए गए। यह सुनते ही मुसलमान हज़रत उस्मान (रजि0) के कत्ल का बदला लेने के लिए तैयारी करने लगे।

जब कुरैश को पता चला कि मुसलमान अब मरने-मारने को तैयार हैं और अब युद्ध निश्चित हैं तो उनसे बातचीत के लिए सुहैल-बिन-अम्र को हजरत मुहम्मद(सल्ल0) के पास हुदैबिया भेजा। सुहैल से मालूम हुआ कि उस्मान (रजि0) का कत्ल नही हुआ है, वे कुरैश की कैद मे हैं। सुहैल ने हज़रत उस्मान (रजि0) का कैद से आजाद करने व युद्ध टालने के लिए कुछ शर्ते पेश की।

•    पहली शर्त थी-इस साल आप सब बिना उमरा (काबा-दर्शन) किए लौट जाएं। अगले साल आएं , लेकिन तीन दिन बाद चले जाएं।
•    दूसरी शर्ते थी-हम कुरैश का कोर्इ आदमी मुसलमान बनकर यदि मदीना आए तो उसे हमे वापस किया जाए। लेकिन यदि कोर्इ मुसलमान मदीना छोड़कर मक्का मे आ जाए, तो हम वापस नही करेंगे।
•    तीसरी शर्त थी-कोर्इ भी कबीला अपनी मर्जी से कुरैश के साथ या मुसलमानों के साथ शामिल हो सकता हैं।
•    समझौते मे चौथी शर्त थी कि-इन शर्तो को मानने के बाद कुरैश और मुसलमान न एक-दूसरे पर हमला करेंगे और न ही एक-दूसरे के सहयोगी कबीलो पर हमला करेंगे। यह समझौता 10 साल के लिए हुआ, जो हुदैबिया समझौते के नाम से जाना जाता हैं।
•    हालांकि ये शर्ते एक तरफा और अन्यायपूर्ण थी, फिर भी शान्ति और सब्र के दूत मुहम्मद (सल्ल0) ने इन्हे स्वीकार कर लिया, ताकि शान्ति स्थापित हो सके।
लेकिन समझौता होने के दो ही साल बाद बनू-बक्र नामक कबीले ने जो मक्का के कुरैश का सहयोगी था, मुसलमानों के सहयोगी कबीलो खुजाआ पर हमला कर दिया। इस हमले मे कुरैश ने बनू-बक्र कबीले का साथ दिया ।
खुजाआ कबीले के लोग भागकर हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) के पास पहुंचे और इस हमले की खबर दी। पैगम्बर मुहम्मद (सल्ल0) ने शान्ति के लिए इनता झुककर समझौता किया था, इसके बाद भी कुरैश ने धोखा देकर समझौता तोड़ डाला।

अब युद्ध एक आवश्यकता थी, धोखा देने वालो को दण्डित करना शान्ति स्थापना के लिए जरूरी था। इसी जरूरत को देखते हुए अल्लाह की ओर से सूरा-9 की आयते अवतरित हुर्इ हुर्इ।

इनके अवतरित होने पर नबी सल्ल0 ने सूरा-9 की आयतें सुनाने के लिए हजरत अली (रजि0) को मुशरिकों के पास भेजा। हजरत अली (रजि0) ने जाकर मुशरिकों से यह कहते हुए कि मुसलमानों के लिए अल्लाह का फरमान आ चुका हैं, उनको सूरा-9 की ये आयते सुना दी:

‘‘(ऐ मुसलमानों! अब) खुदा और उसके रसूल की तरफ से मुशरिकों से, जिनसे तुमने अहद (समझौता) कर रखा था, बेजारी (और जंग की तैयारी) हैं।

तो (मुशरिको! तुम) जमीन मे चार महीने चल फिर लो और जान रखो कि तुम खुदा को आजिज़ न कर सकोगे और यह भी कि खुदा काफिरों को रूसवा करनेवाला हैं।

और हज्जे-अक्बर के दिन खुदा और उसके रसूल की तरफ से लोगो को आगाह किया जाता है कि खुदा मुशरिकों से बेजार है और उसका रसूल भी (उनसे दस्तबरदार हैं)। पस अगर तुम तौबा कर लो, तो तुम्हारे हक में बेहतर हैं और न मानों (और खुदा से मुकाबला करो) तो जान रखो कि तुम खुदा को हरा नही सकोगे और (ऐ पैगम्बर!) काफिरो को दु:ख देनेवाले अजाब की खबर सुना दो।’’ (कुरआन,सूरा-9,आयतें-1-3)

अली (रजि0) ने मुशरिकों से कह दिया कि ‘‘यह अल्लाह का फरमान हैं, अब समझौता टूट चुका हैं और यह तुम्हारे द्वारा तोड़ा गया हैं इसलिए अब इज्जत के चार महीने बीतने के बाद तुमसे जंग (यानी युद्ध) हैं।’’

समझौता तोड़कर हमला करने वालों पर जवाबी हमला कर उन्हें कुचल देना मुसलमानों का हक बनता था, वह भी मक्का के उन मुशरिकों के विरूद्ध जो मुसलमानों के लिए सदैव से अत्याचारी व आक्रमणकारी थें। इसी लिए सर्वोच्च न्यायकर्ता अल्लाह ने पांचवीं आयत का फरमान भेजा।

इस पांचवी आयत से पहले वाली चौथी आयत हैं:
‘‘अलबत्ता, जिन मुशरिकों के साथ तुमने अहद किया हो, और उन्होने तुम्हारा किसी तरह का कुसूर न किया हो और न तुम्हारे मुकाबले मे किसी की मदद की हो, तो जिस मुद्दत तक उनके साथ अहद किया हो, उसे पूरा करो (कि) खुदा परहेजगारों को दोस्त रखता हैं।’’ (कुरआन,सूरा-9,आयत-4)

इससे स्पष्ट हैं कि जंग का यह एलान उन मुशरिको के विरूद्ध था जिन्होने युद्ध के लिए उकसाया, मजबूर किया, उन मुशरिकों के विरूद्ध नहीं जिन्होने ऐसा नही किया। युद्ध का यह एलान आत्मरक्षा व धर्मरक्षा के लिए था।

अत: अन्यायियों, अत्याचारियों द्वारा जबरदस्ती थोपे गए युद्ध से अपने बचाव के लिए किए जानेवाले किसी भी प्रकार के प्रयास को किसी भी तरह झगड़ा कराने वाला नहीं कहा जा सकता। अत्याचारीयों और अन्यायियों से अपनी व अपने धर्म की रक्षा के लिए युद्ध करना और युद्ध के लिए सैनिकों को उत्साहित करना धर्मसम्मत हैं।

इस पर्चे छापने और बॉटने वाले लोग क्या नही जानते कि अत्याचारियों और अन्यायियों के विनाश के लिए ही योगेश्वर श्री कृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था। क्या यह उपदेश लड़ार्इ-झगड़ा करानेवाला या घृणा फैलाने वाला है? यदि नही, तो फिर कुरआन के लिए ऐसा क्यो कहा जाता हैं?

फिर यह पूरी सूरा उस समय मक्का के अत्याचारी मुशरिकों के विरूद्ध उतारी गर्इ, जो अल्लाह के रसूल के ही भार्इ-बन्धु कुरैश थे। फिर इसे आज के सन्दर्भ मे और हिन्दुओं के लिए क्यों लिया जा रहा हैं? क्या यह हिन्दुओं व अन्य गैर-मुस्लिमों को उकसाने और उनके मन में मुसलमानों के लिए घृणा भरने तथा इस्लाम का बदनाम करने की घृणित साजिश नही हैं?