मानवता उपकारक
Author Name: मानवता उपकारक हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम): अबू मुहम्मद इमामुद्दीन

औरतों पर उपकार
        हर व्यक्ति का सबसे पवित्र रिश्ता मॉं से होता हैं। र्इशदूत हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) के एक कथन के अनुसार पुरूषों पर स्त्रियों को तिगुनी श्रेष्ठता प्राप्त हैं। एक व्यक्ति ने र्इशदूत से पूछा कि मै सबसे अधिक किसके साथ भलार्इ करू?

आपने फरमाया, ‘मॉ के साथ, उसने पूछा, ‘फिर किसके साथ?’ आपने फरमाया, ‘मॉ के साथ।’ उसने पूछा, फिर किसके साथ? आपने फरमाया, ‘मॉं के साथ’ उसने चौथी बार पूछा, ‘उसके बाद? आपने फरमाया, ‘ बाप के साथ।’  (तिरमिज़ी)

हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) के इस कथन से पता चलता है कि स्त्री को पुरूष पर तिगुनी श्रेष्ठता प्राप्त हैं। आपका एक कथन हैं, ‘‘मॉं के कदमों तले जन्नत हैं।’’

पुरूष का सबसे निकट सम्बन्ध अपनी पत्नी से होता है। पत्नी पति की जीवन साथी होती हैं इसलिए वह आदर की पात्र होती हैं। लेकिन पुरूषो ने उसको केवल कामवासना का साधन बना लिया। वह आदर भी करता था तो सम्मान भाव से नही, बल्कि भोग-विलास के भाव से।

संसार के हर देश में, सभ्य-असभ्य हर जाति में बहुविवाह का चलन था। पुरूष जितनी स्त्रियॉ चाहता रख लेता, परन्तु न सबका आदर कर सकता, न सबको  सुखी रख सकता। अरब के निवासी दासियों के होते हुए भी आठ-आठ पत्नियां रख लेते, और जिसको जब चाहते तलाक दे देते, झूठा दोष लगाकर मह्र (विवाह का सुनिश्चित स्त्री धन) भी न देते, मरनेवाले पति और पिता के धन एवं जायदाद मे औरत का कोर्इ हिस्सा न था। भारत मे भी बहुविवाह का चलन था। अल्लाह ने पवित्र कुरआन मे बहुविवाह की सीमा निश्चित कर दी।चार पत्नियां तक की तो अनुमति दे दी, परन्तु इन कड़ी शर्तो के साथ कि चारो के साथ समान व्यवहार किया जाए। जो इस आदेश का पूरा-पूरा पालन न कर सके, उसको एक से अधिक पत्नी रखने का अधिकार नही। अल्लाह तआला ने मरनेवाले पति और पिता के धन-जायदाद मे स्त्रियों का हिस्सा भी निश्चित कर दिया जो कुरआन मे सविस्तार उल्लिखित हैं और इस्लामी कानून का अनिवार्य अंश हैं। इस्लाम के पैगम्बर हजरत मुहम्मद (सल्ल0) ने अपने उपदेश में पत्नियों के साथ अच्छा व्यवहार करने की शिक्षा दी हैं। उन्होने कहा-

‘‘तुममें अच्छा व्यक्ति वह हैं जो अपनी पत्नी के सम्बन्ध में अच्छा हैं और मैं तुममे अपनी पत्नियॉ के बारे मे सबसे अच्छा व्यक्ति हू।’’
अरब के लोग बेटियों की हत्या कर देते थे। भारत में भी यही प्रथा थी। कुरआन ने लोगो को इस दुष्कर्म से मना किया। महार्इशदूत ने बेटियों से स्नेह की शिक्षा ही नही दी, बल्कि स्नेह के साथ सम्मान का आदर्श भी उपस्थित किया। बेटियों को पाल-पोसकर विवाह कर फल जन्नत मे अपने निकट स्थान, बताया। स्त्रियों को बहुत सम्मानित किया। माता की सेवा का फल भी जन्नत और बेटी से स्नेह और लालन-पालन का फल भी जन्नत बताया गया। बहन को भी बेटी के बराबर ठहराया गया। पत्नी को दाम्पत्य जीवन, घराने व समाज मे आदरणीय, पवित्र, सुखमय व सुरक्षित स्थान प्रदान किया गया।

दासो पर उपकार
            महार्इशदूत हजरत मुहम्मद (सल्ल0) के आने से पहले संसारभर में दास प्रथा प्रचलित थी। भारत भी मामले में किसी से पीछे न था। दास मनुष्य होते हुए भी पशु-समान थे। दासों का न ही अपने उपर कोर्इ अधिकार था, न ही अपनी पत्नी और न अपनी संतान पर। वे पशु के के समान ही खरीदे और बेचे जाते थे। पशु के समान ही उनसे काम लिया जाता था, मारा और पीटा जाता था। उनका अपना कुछ न था, स्वामी के दिए हुए स्थान मे रहते थे, स्वामी का दिया हुआ कच्चा-पक्का, रूखा-सूखा भोजन थे। हर तरह का अत्याचार चुप-चाप सहने के लिए मजबूर होते थे।

भारत धार्मिक देश था। यहॉ धर्मात्मा थे, दानशील थे, साधु, संत और महात्मा भी थे। परन्तु दास इनकी दया और सहानुभूति से वंचित थे। हालात से मजबूर होकर कहना पड़ता हैं कि उस समय धर्म भी दासों के सम्बन्ध मे खामोश था। मनुस्मृति मे भी दासो के विषय मे दया, सहानुभूति के दो शब्द न थे, वेदों तथा उपनिषदों मे भी दासो को इस अवस्था से निकालने के लिए कोर्इ रास्ता न था। दास भी यह मानकर कि वे पैदा ही इसी लिए हुए हैं, अपनी हालत पर संतोष करते हुए लोगों की सेवा में ही अपना सम्पूर्ण जीवन लगा देते। इस विषय में श्री ज्ञानेन्द्रनाथ श्रीवास्तव दैनिक ‘अमृत प्रभात’ इलाहाबाद 23 दिसम्बर, 1979 के अंक में लिखते हैं-

‘‘रोमन साम्राज्य में गुलामों का व्यापार होता था। इस साम्राज्य के पतन के बाद भी यह बर्बर प्रथा जारी रही। अपने देश के इतिहास का अध्ययन करनेवाले अकसर इस तथ्य को नजरअंदाज कर देते हैं कि यहॉं भी दास-प्रथा लम्बे समय तक मौजूद रही (आज भी हैं-बॅधुआ मजदूरों, घरेलू नौकरो के रूप में-लेखक)। वे मनुष्य, जो किसी दूसरे की सम्पत्ति थे, जिनका अपना कहने को कुछ नही था, यहां तक कि जिनका अपने शरीर पर भी अधिकार नही था, उन्हे दास कहा जाता था। रोम में रोमन क्लासिकल लॉ और भारत में कौटिल्य, मनु और नारद जैसे व्यवस्थाकारों ने अपने ग्रंथों में दासता-विषयक नियम बनाकर इस प्रथा को मान्यता दी थी। इस दलित वर्ग के विषय में पर्याप्त जानकारी हमें प्राचीन भारतीय वाड्मय से प्राप्त होती हैं। वेदो में दास शब्द अधिकांशत: आर्यो के विरोधियों के लिए व्यवहत हुआ हैं, जिन्हे वे ‘अनास’ (नासा रहित अर्थात् चिपटी नाकवाले), ‘मृधवाक्’ (अस्पष्ट वाणीवाले) और ‘शिश्नदेवा:’ आदि शब्दों से सम्बोधित करते थें। संभवत: आर्यो ने इन्हे युद्ध में परास्त करने के बाद अपना दास बना लिया होगा। दास शब्द का प्रयोग यद्यपि वैदिक साहित्य में बहुत हुआ हैं, पर इससे उनके जीवन और सामाजिक स्तर पर विशेष प्रकाश नही पड़ता।छठी शताब्दी र्इ0 पू0 में बुद्ध की वाणी पालि भाषा में मुखरित हुर्इ। उनके दर्शन को जन-जन तक पहॅुचाने के लिए पालि साहित्य विकसित हुआ। पालि साहित्य और जातक कथाएॅ, जो कि तत्कालीन समाज की जीवित प्रतिबिम्ब हैं, दासों के सुख-दुख की कहानी भी कहती हैं। इन ग्रन्थों से पता चलता है कि दास एक निरीह प्राणी था। जिसे सुख की शायद कोर्इ कल्पना भी न थी। भय, असुरक्षा और वास उसके स्थार्इ भाव थे। त्रिपिटक ग्रन्थों में कहीं भी दास की सुरक्षा के लिए कानूनों का उल्लेख नही मिलता और न ऐसे नियम ही जो कि स्वामी के प्रति असीमित अधिकारों को सीमित कर सके। दास-दासियों की सारी खुशी उनके स्वामी की कृपा पर निर्भर थी। स्वामी द्वारा दास को प्रताड़ना देना बड़ी साधारण बात थी। ऐसे उदाहरणों की कमीं नही जब अकारण ही स्वामी द्वारा दास की हत्या कर दी गर्इ या उसके नाक-कान काट लिए गए और स्वामी को कोर्इ दण्ड नही मिला। ‘विमानवक्ष’ मे एक ऐसा ही उदाहरण मिलता हैं, जिसमें स्वामी ने क्रोध के क्षणिक आवेश मे आकर खेत की चौकीदारी करनेवाले अपने दास की हत्या कर दी और उसके कुटुम्बजन चुपचाप रोते रहे।

दासियों की स्थिति और भी दयनीय थी। यदि वह सुन्दर हुर्इ तो उन्हे स्वामी की वासना का शिकार होना पड़ता था। धम्मपाद मे ऐसी ही एक दासी का उदाहरण हैं। स्वामी के साथ सोने के अपराध में गृहस्वामिनी ने उसके नाक-कान काट लिए।

दास-दासियों को मजदूरी करके, धन कमाकर अपने स्वामी को देना पड़ता था। ऐसा न करने पर उन्हें यातनाएॅं सहनी पड़ती थी। ‘नामसिद्धि’ जातक में धनपाली नामक दासी के साथ ऐसा ही हुआ था, जिसे उसके मालिक काम करके मजदूरी न देने के कारण दरवाजे पर बिठाकर रस्सी से पीट रहे थे।


दासों के प्रति कठोरता उन्हें नियंत्रित करने का साधन मानी गर्इ थी। उन्हे सभी अधिकारों से वंचित कर दिया गया था। वैधानिक दृष्टि से दास मनुष्य न होकर एक वस्तु था। वह अपनी इच्छा के अनुसार कुछ नही कर सकता था। उसकी प्रत्येक छोटी-बड़ी वस्तु उसके स्वामी की होती थी और वह स्वामी की चल सम्पत्ति का अंग था। स्वयं सम्पत्ति का अंग होने पर दास के लिए निजी सम्पत्ति की कल्पना करना ही असंभव था। हॉ ‘कट्टहारि जातक’ में कौशल नरेश के पुत्र विद्डम, जिसकी मां दासी कन्या थी और इसी कारण वह अपने अधिकार से वंचित हो रहा था, के लिए उत्तराधिकारी की सिफारिश की गर्इ हैं।

दासों की कर्इ कोटियां होती थी। यह श्रेणी-निर्धारण बहुत कुछ इसपर निर्भर करता था कि वे किस प्राप्त किए गए हैं। दासी के गर्भ से जन्म लेनेवाली संतान भी दास होती थी और उस पर उसी स्वामी का अधिकार होता था। दास-दासी उपहार में दिए जाते थे। जुए में हारे व्यक्ति को भी दास लिया जाता था। युद्ध-बंदी को दास बनाना तो वैदिक समय से ही प्रचलित था। दासों की एक प्रमुख श्रेणी थी-

क्रीत दास। जातक कथाओ मे अक्सर ‘सो मुद्राओं’ में खरीदे हुए दासों का उल्लेख है। लगता हैं उस समय दास का यह सामान्य मूल्य था।’’

महार्इशदूत हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) ने दास-दासियों का सम्मान ही नही बढ़ाया, बल्कि दास प्रथा को समाप्त भी कर दिया। इस सम्बन्ध मे विख्यात अंग्रेज विद्वान मिस्टर बास्वर्थ अपनी किताब ‘‘मुहम्मद एंड मुहम्मडनिज्म’’ में लिखते है-

‘‘अब हम देखना चाहते हैं कि इस्लाम ने दासों के विषय में क्या किया-इसमें संदेह नही कि इस बारे में भी, न केवल उन्नति की ओर प्रगति की गर्इ, बल्कि स्त्रियों के सम्बन्ध में जो कानून बनाए गए उनके मुकाबले में दासों के बारे में ज्यादा तरक्की की गर्इ। निस्संदेह हजरत मुहम्मद (सल्ल0) ने दासता को बिलकुल मिटा नही दिया, क्योकि देश की हालत को देखते हुए ऐसा करना न उचित था और न सम्भव। लेकिन उन्होने गुलामों को आजाद कराने पर लोगो को उभारा और इस संबंध में कानून बनाया गया। और इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह हैं कि कोर्इ मुक्त गुलाम इसलिए नीच और हीन न समझा जाए कि उसने मेहनत और परिश्रम से एक सत्य और सम्मानपूर्ण जीवन व्यतीत किया हैं। और उनके बारे में जो गुलामी की हालत में हैं, यह हुक्म दिया कि उनके साथ दया और नम्रता का व्यवहार किया जाए। उन्होने अपने हज के अंतिम भाषण में, जो अपनी परलोक यात्रा से कुछ ही दिन पहले मक्का मे दिया था, कहा था- ‘‘मुसलमानों! तुम अपने गुलामों को वैसा ही खाना खिलाओं जैसा तुम खुद खाते हो, और वैसा ही कपड़ा पहनाओं जैसा तुम खुद पहनते हो, क्योकि वे भी खुदा के बन्दे है। उनको कष्ट देना उचित नही,’’ इस्लाम के इस कानून ने तो गुलाम का अर्थ ही बदल दिया।

जो लोग युद्ध मे बन्दी होकर आए हो और अपनी स्वतंत्रता खो बैठे हो। ऐसे बन्दी अगर मुसलमान हो जाते तो उनके सम्बन्ध मे यह हुक्म था कि आजाद कर दिए जाएॅ। लेकिन अगर वे अपने धर्म पर कायम रहते तो भी मुसलमानों को उनके लिए इस्लाम के पैगम्बर का हुक्म यह था कि तुम उन्हे अपना भार्इ समझो। उन्होने फरमाया- ‘‘जो मालिक अपने गुलाम के साथ मेहरबानी करे वह खुदा को पसंद होगा और जो अपने अधिकार को बुरे तौर पर काम में लाए यानी गुलाम को सताएगा तो वह स्वर्ग में प्रवेश न पाएगा।’’ एक मुसलमान ने उनसे (मुहम्मद सल्ल0 से) सवाल किया कि मेरा गुलाम जो मुझे नाराज करे तो उसको मुझे कितनी बार माफ करना चाहिए। हजरत मुहम्मद (सल्ल0) ने जवाब दिया, ‘‘एक दिन में सत्तर बार।’’ आपने कैदी औरतों को पत्नी बनाना उचित ठहराया।

लेकिन वह औरत जिससे बिना विवाह संगम हो जाए उसके बारे में यह हुक्म दिया कि वह संतान से अलग न की जाए, न फिर वह बेची जाए, बल्कि मालिक के मर जाने के बाद वह आजाद समझी जाए’’ जो मुसलमान मालिक अपने दास पर नाराज हो उसपर अनिवार्य हैं कि वह उसको तुरन्त आजाद कर दें। मालिक कितना ही सम्पन्न क्यों न हो अदालत को अनुमति थी कि उसको गुलाम पर दया करने के लिए मजबूर किया जाए। सारी मानव जाति का र्इश्वर की दृष्टि में समान होना एक ऐसा सिद्धान्त था जिसपर हजरत मुहम्मद (सल्ल0) ने बार-बार जोर दिया हैं। इस तरह चूॅकि यह सिद्धान्त गुलामी के रिश्ते एवं जातपात के अन्तर को बिलकुल मिटा देता था इसलिए उसने गुलामी की हीनता को भी मिटा दिया’’।

उपर इस्लाम के जिन आदेशों का वर्णन किया हैं उनमें दो आदेशों को और भी शामिल करना चाहिए था। पहला, हजरत मुहम्मद (सल्ल0) ने फरमाया-

‘‘गुलामों से ऐसे काम न लिए जाए जो उन्हें थका दें। और यदि उनको ऐसा कठिन काम दिया जाए जो उनको थका दे तो उसमें स्वंय उनकी सहायता की जाए।’’    (सहीह बुखारी)

‘‘कोर्इ ‘मेरा गुलाम’ और ‘मेरी लौंडी’ न कहे। तुम सब खुदा के दास हो। और तुम्हारी सब औरतें खुदा की दासियॉ हैं। यूॅ कहना चाहिए कि मेरा बच्चा, मेरी बच्ची। (सहीह मुसलिम)

सारांश यह हैं कि महार्इशदूत ने गुलामों और लौंडियों के कष्ट ही को कम या समाप्त नही किया, बल्कि उनको उचित सम्मान दिलाने के लिए उनके सम्बन्ध में ‘गुलाम’ या ‘लौंडी’ शब्द का प्रयोग ही निषिद्ध ठहरा दिया। दासी (गुलाम औरत) से पैदा होनेवाली सन्तान को कानूनन ‘‘आजाद’’ करार दिया। दासों-दासियों को आजाद करने व कराने को प्रोत्साहित किया। परिणाम-स्वरूप इस्लामी समाज में आगे चलकर यह शोषित वर्ग विलुप्त हो गया और बड़े-बड़े ज्ञानी, विद्धान व शासक इस वर्ग की नस्ल से पैदा हुए।


हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) के इस कथन से पता चलता है कि स्त्री को पुरूष पर तिगुनी श्रेष्ठता प्राप्त हैं। आपका एक कथन हैं, ‘‘मॉं के कदमों तले जन्नत हैं।’’

पुरूष का सबसे निकट सम्बन्ध अपनी पत्नी से होता है। पत्नी पति की जीवन साथी होती हैं इसलिए वह आदर की पात्र होती हैं। लेकिन पुरूषो ने उसको केवल कामवासना का साधन बना लिया। वह आदर भी करता था तो सम्मान भाव से नही, बल्कि भोग-विलास के भाव से।

संसार के हर देश में, सभ्य-असभ्य हर जाति में बहुविवाह का चलन था। पुरूष जितनी स्त्रियॉ चाहता रख लेता, परन्तु न सबका आदर कर सकता, न सबको सुखी रख सकता। अरब के निवासी दासियों के होते हुए भी आठ-आठ पत्नियां रख लेते, और जिसको जब चाहते तलाक दे देते, झूठा दोष लगाकर मह्र (विवाह का सुनिश्चित स्त्री धन) भी न देते, मरनेवाले पति और पिता के धन एवं जायदाद मे औरत का कोर्इ हिस्सा न था। भारत मे भी बहुविवाह का चलन था। अल्लाह ने पवित्र कुरआन मे बहुविवाह की सीमा निश्चित कर दी।चार पत्नियां तक की तो अनुमति दे दी, परन्तु इन कड़ी शर्तो के साथ कि चारो के साथ समान व्यवहार किया जाए। जो इस आदेश का पूरा-पूरा पालन न कर सके, उसको एक से अधिक पत्नी रखने का अधिकार नही। अल्लाह तआला ने मरनेवाले पति और पिता के धन-जायदाद मे स्त्रियों का हिस्सा भी निश्चित कर दिया जो कुरआन मे सविस्तार उल्लिखित हैं और इस्लामी कानून का अनिवार्य अंश हैं। इस्लाम के पैगम्बर हजरत मुहम्मद (सल्ल0) ने अपने उपदेश में पत्नियों के साथ अच्छा व्यवहार करने की शिक्षा दी हैं। उन्होने कहा-

‘‘तुममें अच्छा व्यक्ति वह हैं जो अपनी पत्नी के सम्बन्ध में अच्छा हैं और मैं तुममे अपनी पत्नियॉ ंके बारे मे सबसे अच्छा व्यक्ति हू।’’
अरब के लोग बेटियों की हत्या कर देते थे। भारत में भी यही प्रथा थी। कुरआन ने लोगो को इस दुष्कर्म से मना किया। महार्इशदूत ने बेटियों से स्नेह की शिक्षा ही नही दी, बल्कि स्नेह के साथ सम्मान का आदर्श भी उपस्थित किया। बेटियों को पाल-पोसकर विवाह कर फल जन्नत मे अपने निकट स्थान, बताया। स्त्रियों को बहुत सम्मानित किया। माता की सेवा का फल भी जन्नत और बेटी से स्नेह और लालन-पालन का फल भी जन्नत बताया गया। बहन को भी बेटी के बराबर ठहराया गया। पत्नी को दाम्पत्य जीवन, घराने व समाज मे आदरणीय, पवित्र, सुखमय व सुरक्षित स्थान प्रदान किया गया।

दासो पर उपकार
            महार्इशदूत हजरत मुहम्मद (सल्ल0) के आने से पहले संसारभर में दास प्रथा प्रचलित थी। भारत भी मामले में किसी से पीछे न था। दास मनुष्य होते हुए भी पशु-समान थे। दासों का न ही अपने उपर कोर्इ अधिकार था, न ही अपनी पत्नी और न अपनी संतान पर। वे पशु के के समान ही खरीदे और बेचे जाते थे। पशु के समान ही उनसे काम लिया जाता था, मारा और पीटा जाता था। उनका अपना कुछ न था, स्वामी के दिए हुए स्थान मे रहते थे, स्वामी का दिया हुआ कच्चा-पक्का, रूखा-सूखा भोजन थे। हर तरह का अत्याचार चुप-चाप सहने के लिए मजबूर होते थे।

भारत धार्मिक देश था। यहॉ धर्मात्मा थे, दानशील थे, साधु, संत और महात्मा भी थे। परन्तु दास इनकी दया और सहानुभूति से वंचित थे। हालात से मजबूर होकर कहना पड़ता हैं कि उस समय धर्म भी दासों के सम्बन्ध मे खामोश था। मनुस्मृति मे भी दासो के विषय मे दया, सहानुभूति के दो शब्द न थे, वेदों तथा उपनिषदों मे भी दासो को इस अवस्था से निकालने के लिए कोर्इ रास्ता न था। दास भी यह मानकर कि वे पैदा ही इसी लिए हुए हैं, अपनी हालत पर संतोष करते हुए लोगों की सेवा में ही अपना सम्पूर्ण जीवन लगा देते। इस विषय में श्री ज्ञानेन्द्रनाथ श्रीवास्तव दैनिक ‘अमृत प्रभात’ इलाहाबाद 23 दिसम्बर, 1979 के अंक में लिखते हैं-

‘‘रोमन साम्राज्य में गुलामों का व्यापार होता था। इस साम्राज्य के पतन के बाद भी यह बर्बर प्रथा जारी रही। अपने देश के इतिहास का अध्ययन करनेवाले अकसर इस तथ्य को नजरअंदाज कर देते हैं कि यहॉं भी दास-प्रथा लम्बे समय तक मौजूद रही (आज भी हैं-बॅधुआ मजदूरों, घरेलू नौकरो के रूप में-लेखक)। वे मनुष्य, जो किसी दूसरे की सम्पत्ति थे, जिनका अपना कहने को कुछ नही था, यहां तक कि जिनका अपने शरीर पर भी अधिकार नही था, उन्हे दास कहा जाता था। रोम में रोमन क्लासिकल लॉ और भारत में कौटिल्य, मनु और नारद जैसे व्यवस्थाकारों ने अपने ग्रंथों में दासता-विषयक नियम बनाकर इस प्रथा को मान्यता दी थी। इस दलित वर्ग के विषय में पर्याप्त जानकारी हमें प्राचीन भारतीय वाड्मय से प्राप्त होती हैं। वेदो में दास शब्द अधिकांशत: आर्यो के विरोधियों के लिए व्यवहत हुआ हैं, जिन्हे वे ‘अनास’ (नासा रहित अर्थात् चिपटी नाकवाले), ‘मृधवाक्’ (अस्पष्ट वाणीवाले) और ‘शिश्नदेवा:’ आदि शब्दों से सम्बोधित करते थें। संभवत: आर्यो ने इन्हे ंयुद्ध में परास्त करने के बाद अपना दास बना लिया होगा। दास शब्द का प्रयोग यद्यपि वैदिक साहित्य में बहुत हुआ हैं, पर इससे उनके जीवन और सामाजिक स्तर पर विशेष प्रकाश नही पड़ता।छठी शताब्दी र्इ0 पू0 में बुद्ध की वाणी पालि भाषा में मुखरित हुर्इ। उनके दर्शन को जन-जन तक पहॅुचाने के लिए पालि साहित्य विकसित हुआ। पालि साहित्य और जातक कथाएॅ, जो कि तत्कालीन समाज की जीवित प्रतिबिम्ब हैं, दासों के सुख-दुख की कहानी भी कहती हैं। इन ग्रन्थों से पता चलता है कि दास एक निरीह प्राणी था। जिसे सुख की शायद कोर्इ कल्पना भी न थी। भय, असुरक्षा और वास उसके स्थार्इ भाव थे। त्रिपिटक ग्रन्थों में कहीं भी दास की सुरक्षा के लिए कानूनों का उल्लेख नही मिलता और न ऐसे नियम ही जो कि स्वामी के प्रति असीमित अधिकारों को सीमित कर सके। दास-दासियों की सारी खुशी उनके स्वामी की कृपा पर निर्भर थी। स्वामी द्वारा दास को प्रताड़ना देना बड़ी साधारण बात थी। ऐसे उदाहरणों की कमीं नही जब अकारण ही स्वामी द्वारा दास की हत्या कर दी गर्इ या उसके नाक-कान काट लिए गए और स्वामी को कोर्इ दण्ड नही मिला। ‘विमानवक्ष’ मे एक ऐसा ही उदाहरण मिलता हैं, जिसमें स्वामी ने क्रोध के क्षणिक आवेश मे आकर खेत की चौकीदारी करनेवाले अपने दास की हत्या कर दी और उसके कुटुम्बजन चुपचाप रोते रहे।

दासियों की स्थिति और भी दयनीय थी। यदि वह सुन्दर हुर्इ तो उन्हे स्वामी की वासना का शिकार होना पड़ता था। धम्मपाद मे ऐसी ही एक दासी का उदाहरण हैं। स्वामी के साथ सोने के अपराध में गृहस्वामिनी ने उसके नाक-कान काट लिए।

दास-दासियों को मजदूरी करके, धन कमाकर अपने स्वामी को देना पड़ता था। ऐसा न करने पर उन्हें यातनाएॅं सहनी पड़ती थी। ‘नामसिद्धि’ जातक में धनपाली नामक दासी के साथ ऐसा ही हुआ था, जिसे उसके मालिक काम करके मजदूरी न देने के कारण दरवाजे पर बिठाकर रस्सी से पीट रहे थे।


दासों के प्रति कठोरता उन्हें नियंत्रित करने का साधन मानी गर्इ थी। उन्हे सभी अधिकारों से वंचित कर दिया गया था। वैधानिक दृष्टि से दास मनुष्य न होकर एक वस्तु था। वह अपनी इच्छा के अनुसार कुछ नही कर सकता था। उसकी प्रत्येक छोटी-बड़ी वस्तु उसके स्वामी की होती थी और वह स्वामी की चल सम्पत्ति का अंग था। स्वयं सम्पत्ति का अंग होने पर दास के लिए निजी सम्पत्ति की कल्पना करना ही असंभव था। हॉ ‘कट्टहारि जातक’ में कौशल नरेश के पुत्र विद्डम, जिसकी मां दासी कन्या थी और इसी कारण वह अपने अधिकार से वंचित हो रहा था, के लिए उत्तराधिकारी की सिफारिश की गर्इ हैं।

दासों की कर्इ कोटियां होती थी। यह श्रेणी-निर्धारण बहुत कुछ इसपर निर्भर करता था कि वे किस प्राप्त किए गए हैं। दासी के गर्भ से जन्म लेनेवाली संतान भी दास होती थी और उस पर उसी स्वामी का अधिकार होता था। दास-दासी उपहार में दिए जाते थे। जुए में हारे व्यक्ति को भी दास लिया जाता था। युद्ध-बंदी को दास बनाना तो वैदिक समय से ही प्रचलित था। दासों की एक प्रमुख श्रेणी थी-

क्रीत दास। जातक कथाओ मे अक्सर ‘सो मुद्राओं’ में खरीदे हुए दासों का उल्लेख है। लगता हैं उस समय दास का यह सामान्य मूल्य था।’’

महार्इशदूत हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) ने दास-दासियों का सम्मान ही नही बढ़ाया, बल्कि दास प्रथा को समाप्त भी कर दिया। इस सम्बन्ध मे विख्यात अंग्रेज विद्वान मिस्टर बास्वर्थ अपनी किताब ‘‘मुहम्मद एंड मुहम्मडनिज्म’’ में लिखते है-

‘‘अब हम देखना चाहते हैं कि इस्लाम ने दासों के विषय में क्या किया-इसमें संदेह नही कि इस बारे में भी, न केवल उन्नति की ओर प्रगति की गर्इ, बल्कि स्त्रियों के सम्बन्ध में जो कानून बनाए गए उनके मुकाबले में दासों के बारे में ज्यादा तरक्की की गर्इ। निस्संदेह हजरत मुहम्मद (सल्ल0) ने दासता को बिलकुल मिटा नही दिया, क्योकि देश की हालत को देखते हुए ऐसा करना न उचित था और न सम्भव। लेकिन उन्होने गुलामों को आजाद कराने पर लोगो को उभारा और इस संबंध में कानून बनाया गया। और इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह हैं कि कोर्इ मुक्त गुलाम इसलिए नीच और हीन न समझा जाए कि उसने मेहनत और परिश्रम से एक सत्य और सम्मानपूर्ण जीवन व्यतीत किया हैं। और उनके बारे में जो गुलामी की हालत में हैं, यह हुक्म दिया कि उनके साथ दया और नम्रता का व्यवहार किया जाए। उन्होने अपने हज के अंतिम भाषण में, जो अपनी परलोक यात्रा से कुछ ही दिन पहले मक्का मे दिया था, कहा था- ‘‘मुसलमानों! तुम अपने गुलामों को वैसा ही खाना खिलाओं जैसा तुम खुद खाते हो, और वैसा ही कपड़ा पहनाओं जैसा तुम खुद पहनते हो, क्योकि वे भी खुदा के बन्दे है। उनको कष्ट देना उचित नही,’’ इस्लाम के इस कानून ने तो गुलाम का अर्थ ही बदल दिया।

जो लोग युद्ध मे बन्दी होकर आए हो और अपनी स्वतंत्रता खो बैठे हो। ऐसे बन्दी अगर मुसलमान हो जाते तो उनके सम्बन्ध मे यह हुक्म था कि आजाद कर दिए जाएॅ। लेकिन अगर वे अपने धर्म पर कायम रहते तो भी मुसलमानों को उनके लिए इस्लाम के पैगम्बर का हुक्म यह था कि तुम उन्हे अपना भार्इ समझो। उन्होने फरमाया- ‘‘जो मालिक अपने गुलाम के साथ मेहरबानी करे वह खुदा को पसंद होगा और जो अपने अधिकार को बुरे तौर पर काम में लाए यानी गुलाम को सताएगा तो वह स्वर्ग में प्रवेश न पाएगा।’’ एक मुसलमान ने उनसे (मुहम्मद सल्ल0 से) सवाल किया कि मेरा गुलाम जो मुझे नाराज करे तो उसको मुझे कितनी बार माफ करना चाहिए। हजरत मुहम्मद (सल्ल0) ने जवाब दिया, ‘‘एक दिन में सत्तर बार।’’ आपने कैदी औरतों को पत्नी बनाना उचित ठहराया।

लेकिन वह औरत जिससे बिना विवाह संगम हो जाए उसके बारे में यह हुक्म दिया कि वह संतान से अलग न की जाए, न फिर वह बेची जाए, बल्कि मालिक के मर जाने के बाद वह आजाद समझी जाए’’ जो मुसलमान मालिक अपने दास पर नाराज हो उसपर अनिवार्य हैं कि वह उसको तुरन्त आजाद कर दें। मालिक कितना ही सम्पन्न क्यों न हो अदालत को अनुमति थी कि उसको गुलाम पर दया करने के लिए मजबूर किया जाए। सारी मानव जाति का र्इश्वर की दृष्टि में समान होना एक ऐसा सिद्धान्त था जिसपर हजरत मुहम्मद (सल्ल0) ने बार-बार जोर दिया हैं। इस तरह चूॅकि यह सिद्धान्त गुलामी के रिश्ते एवं जातपात के अन्तर को बिलकुल मिटा देता था इसलिए उसने गुलामी की हीनता को भी मिटा दिया’’।

उपर इस्लाम के जिन आदेशों का वर्णन किया हैं उनमें दो आदेशों को और भी शामिल करना चाहिए था। पहला, हजरत मुहम्मद (सल्ल0) ने फरमाया-

‘‘गुलामों से ऐसे काम न लिए जाए जो उन्हें थका दें। और यदि उनको ऐसा कठिन काम दिया जाए जो उनको थका दे तो उसमें स्वंय उनकी सहायता की जाए।’’    (सहीह बुखारी)

‘‘कोर्इ ‘मेरा गुलाम’ और ‘मेरी लौंडी’ न कहे। तुम सब खुदा के दास हो। और तुम्हारी सब औरतें खुदा की दासियॉ हैं। यूॅ कहना चाहिए कि मेरा बच्चा, मेरी बच्ची। (सहीह मुसलिम)

सारांश यह हैं कि महार्इशदूत ने गुलामों और लौंडियों के कष्ट ही को कम या समाप्त नही किया, बल्कि उनको उचित सम्मान दिलाने के लिए उनके सम्बन्ध में ‘गुलाम’ या ‘लौंडी’ शब्द का प्रयोग ही निषिद्ध ठहरा दिया। दासी (गुलाम औरत) से पैदा होनेवाली सन्तान को कानूनन ‘‘आजाद’’ करार दिया। दासों-दासियों को आजाद करने व कराने को प्रोत्साहित किया। परिणाम-स्वरूप इस्लामी समाज में आगे चलकर यह शोषित वर्ग विलुप्त हो गया और बड़े-बड़े ज्ञानी, विद्धान व शासक इस वर्ग की नस्ल से पैदा हुए।