इस्लाम मे हलाल और हराम
Author Name: मुहम्मद जैनुल-आबिदीन मंसूरी

इस्लाम मे हलाल और हराम

                    इस्लाम की विशिष्टता इस संबंध मे यह हैं कि वह अन्य समाजों के विपरीत, मांसाहार के विषय मे एक निश्चित आचार संहिता (Code of conduct) अपने अनुयायियों को प्रदान करता हैं जिसे इस्लामी विधान (शरीअत) की परिभाषा में ‘हलाल’ (वैद्य) और ‘हराम’ (अवैध) कहा गया हैं। इसकी सीमा का निर्धारण स्वयं अल्लाह ने (कुरआन में) कर दिया हैं तथा इसकी विस्तृत व्याख्या अल्लाह के पैगम्बर हजरत मुहम्मद (सल्ल0) के आदर्श (सुन्नत, सीरत व हदीस) में कर दी गर्इ हैं। जैसा कि पहले लिखा जा चुका है कि अल्लाह (र्इश्वर) की तत्वदर्शिता व ज्ञान अपार, असीम और पूर्ण हैं, और चूकि वह इंसान सहित सृष्टि की हर वस्तु का सृजनकर्ता भी हैं अतएव, यह वही बेहतर तौर से जानता है कि आहार के लिए कौन-सी वस्तुए मनुष्य के शारीरिक हित (स्वास्थ्य) एवं उसके आध्यात्मिक हित (नैतिकता व चरित्र) के लिए लाभदायक या हानिकारक हैं । अत: इस्लाम ने कुत्ते, सूअर, दरिन्दों एवं चंगुल से उठाकर आहार मुह मे डालनेवाले पक्षियों तथा इंसानों का मांस खाना अवैध (हराम) करार दिया हैं। हमारे भारतीय समाजों और अधिकतर धार्मिक समुदायों मे भी, सामान्य स्तर पर, मांसाहार के लिए ‘उचित’ व अनचित’ का यही इस्लामी मापदण्ड प्रचलित हैं। लेकिन संसार मे कुछ कौमे, जातियॉ, समुदाय और इक्का-दुक्का लोग ऐसे भी हैं मनुष्य, कुत्ते और सूअर आदि का मांस भी खाते हैं। इसके कुप्रभावों को सहज रूप से देखा जा सकता हैं कि ऐसे लोगो और कौमों मे कैसे-कैसे पाश्विक व राक्षसीय अवगुण उत्पन्न हो जाते हैं। उनके शील-स्वभाव और चरित्र कैसे-कैसे नैतिक दुर्गुणों से दूषित एवं पतन-ग्रस्त होते हैं। इस्लाम की विशिष्टता हैं कि वह जीव-हत्या और मांसाहार के विषय पर अतिवादी (Exrtemist) नही, अपितु संतुलित जीवन-व्यवस्था का समर्थक एंव पक्षधर है। इस्लाम न तो ‘अहिंसा’ और ‘दया’ के नाम पर मनुष्य को उन खाद्य-पदार्थो व आहार-सामग्रियों से वंचित करता है जो मनुष्य के आहार व उपभोग के लिए ही सृजित व उत्पन्न की गर्इ हैं और न ही यह मनुष्य को इतना स्वतंत्र छोड़ देता हैं कि जो भी जी में आए खाए-पिए और जीवधारियों की व्यर्थ हत्या करे। यह व्यर्थ हत्या ही वास्तव मे इस्लाम की दृष्टि मे निर्दयता हैं। हजरत मुहम्मद (सल्ल0) ने आदेश दिया हैं कि पशुओं से उनकी शक्ति एवं सामथ्र्य से अधिक काम न लिया जाए, उनपर इतना बोझ न लादा जाए कि वे उठा न सके और उन्हें भूखा न रखा जाए। मांसाहार के लिए पशु को जिब्ह (Staughter) करने को इस्लाम ने अनिवार्य किया ताकि पशु के शरीर से सारा रक्त निकल जाए क्योकि यदि रक्त पशु के अन्दर ही रहकर कोशिकाओं में जम जाए तो उसका मॉस स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो जाता हैं । साथ ही इस्लाम ने यह भी आज्ञा दी कि जिब्ह करते समय छुरी की धार मरी हुर्इ (कुंद) न हो बल्कि बहुत तेज हो ताकि पशु को अनावश्यक पीड़ा न झेलनी पड़े।


जीव-हत्या और सामान्य समाज
                    प्रत्येक समाज में जीव-हत्या का प्रचलन विभिन्न रूपों में रहा हैं और इसे मान्यता प्राप्त रही हैं। इसके दो आधार रहे हैं। एक: मनुष्यों के लाभ के लिए, दो: मनुष्य और मानव-समाज को क्षति पहुचाने से बचाने तथा सुरक्षित रखने के लिए इस्लाम पर जीव-हत्या की निर्दयता का आरोप लगाते और आक्षेप व दुष्प्रचार करते हैं उनकी दृष्टि में भी जीव-हत्या के उपरोक्त दोनों आधार मान्य हैं।

मनुष्य के जीवन और स्वास्थ्य के लिए जिस संतुलित आहार (Balanced diet) की अनिवार्यता सर्वमान्य रही है, जिसमें पौष्टिक व स्वास्थ्यप्रद तत्व-विटामिंस, प्रोटीन मिनरल्स, कार्बोहार्इट्रक, लवण (Salts) आदि-पाए जाते हैं, वह जीवधारियों से ही उपलब्ध होते हैं और उनमें से अधिकतर, वनस्पतियों, सब्जियों और पेड़-पौधौं को काट कर (जो वास्तव में जीव-हत्या ही हैं) या पशु-पक्षियो एवं मछलियों आदि जीवों की हत्या करके ही प्राप्त किए जाते हैं।

समुद्र मे किसी भी समय-बिन्दु (Point Of Time) पर समस्त मानव-आबादी के पौष्टिक आहार की लगभग दो तिहार्इ आवश्यकतापूर्ति के लिए खाद्य-सामग्री विद्यमान रहती हैं जिसका कुछ अंश पूरे विश्व (हमारे ‘अहिंसा-प्रिय’ देश सहित)में बराबर इस्तेमाल मे लाया जाता हैं। इस जीव-हत्या पर कभी आपत्ति नही दर्शार्इ गर्इ हैं। मांसाहार हेतु पशु-वद्य के सरकार-अधिकृत बूचड़खानों (Slaughter houses) से पशु-रक्त की पूरी मात्रा उन कंपनियों द्वारा उठा ली जाती हैं जो मानव-शरीर मे रक्त और हीमोग्लोबीन (Haemoglobin) की कमी पूरी करने वाली औषधियों व टॉनिक बनाती हैं। इन मृतक पशुओं की खाल, हड्डी, तॉत (नसों), झिल्ली, सींग, बाल आदि से बड़े-बड़े उद्योग चलते हैं, इनकी चरबी खाद्य-समग्री एवं अन्य उपभोग-सामग्रीयॉ बनाने में प्रयुक्त होती है जिन्हें मांसाहारी और मांसाहार-विरोधी, अहिंसावादी, अर्थात सारी जनता सहर्ष प्रयोग करती हैं। तब जीव-हत्या, निर्दयता, हिंसा आदि का प्रश्न कही नही उठता। स्वास्थ्य विज्ञान एवं औषधि विज्ञान (Medical Sciences) में निरंतर शोधकार्य एवं चिकित्सा-विज्ञान के विद्यार्थियों का शोध-कार्य और प्रशिक्षण चूहों, मेढको, बंदरों आदि की हत्या पर ही टिका हुआ है। यह पूरी वस्तुस्थिति, जिसका उपर वर्णन हुआ, इस इस्लामी धारणा की ही पुष्टि करती हैं कि समस्त जीवधारी, मानव-जाति के हित, उसी के उपयोग व उपभोग के लिए बनाए गए हैं।

ऐसे जीवधारियों की हत्या कर देने को भी हर समाज मे मान्यता दी गर्इ है और इसका व्यावहारिक प्रचलन रहा हैं जो मनुष्य के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हानिकारक, कष्टदायक या घातक होने लगे। ऐन्टीबायोटिक औषधियॉ, जिन्हें हर ‘अहिंसावादी’ व्यक्ति भी संतोषपूर्वक प्रयोग करता हैं, जीवधारी बैक्टीरिया की ‘हत्या’ ही करती हैं। कीटनाशक औषधियॉ, जिनका छिड़काव जीवधारियों के प्रति दयाभाव से ओतप्रोत लोग भी अपने घरों मे तथा फसलों पर करते हैं, जीवधारी कीड़ो-मकोड़ों की हत्या ही करती हैं। डाकुओं, बदमाशों आदि को पुलिस जनहित में गोली मार देती हैं, वह भी जीव-हत्या ही हैं। बड़े-बड़े अपराधियों और देश-द्रोहियों को सरकार फासी पर लटका देती हैं और युद्ध मे शत्रु देश के सैनिकों की हत्या कर दी जाती हैं तथा शांति व कानून व्यवस्था को भंग करनेवाले उपद्रवियों को जब देखते ही गोली मार ( Shoot at sight) दी जाती हैं तो यह भी जीव-हत्या ही होती हैं।लेकिन कभी भी, कहीं भी मात्र इस तर्क पर कि यह सब जीव-हत्या, निर्दयता, बर्बरता, क्रूरता और हिंसा है, ऐसी जीव-हत्याओं पर ‘हत्या’ का आरोप नही लगता, न ही व्यक्ति, समुदाय, प्रशासन, सरकार एवं राष्ट्र पर आक्षेप किया जाता हैं।

कहने का तात्पर्य यह हैं कि जीव-हत्या अपने आप में अवांछनीय, अनुचित, पाप या अपराध नही हैं। कुछ नैतिक, कुछ सामाजिक व सैद्धांतिक मापदंड कभी इसे उचित भी ठहराते हैं और कभी, अनुचित, अमानवीय, अपराध एवं पाप भी करार देते हैं। यही बात मनुष्य के स्वभाव एवं उसकी आवश्यकाओं के ठीक अनुकूल भी हैं। इस्लाम एक व्यावहारिक धर्म एवं स्वाभाविक व संतुलित जीवन-व्यवस्था हैं। अत: जीवन-व्यवस्था है अत: जीव -हत्या के विषय पर उसकी नीति इसी सत्य पर आधारित हैं।