इस्लाम मे पड़ोसी के अधिकार
Author Name: लाला काशी राम चावला

इस्लाम मे पड़ोसी के अधिकार

इस्लाम में पड़ोसी के साथ अच्छे व्यवहार पर बड़ा बल दिया गया है, परन्तु इसका उददेश्य यह नही हैं कि पड़ोसी की सहायता करने से पड़ोसी भी समय पर काम आए, अपितु इसे एक मानवीय कर्तव्य ठहराया गया हैI इसे आवश्यक करार दिया गया है और यह कर्तव्य पड़ोसी ही तक सीमित नही है बल्कि किसी साधारण मनुष्य से भी असम्मानजनक व्यवहार न करने की ताकीद की गई है। (क़ुरआन, 31:18)

पड़ोसी के साथ अच्छे व्यवहार का विशेष रूप से आदेश है। न केवल निकटतम पड़ोसी के साथ, बल्कि दूर वाले पड़ोसी के साथ भी अच्छे व्यवहार की ताकीद आई है:

‘‘और अच्छा व्यवहार करते रहो- माता-पिता के साथ, सगे-सम्बन्धियों के साथ, अबलाओं के साथ, दीन-दुखियों के साथ, निकटतम और दूर के पड़ोसियों के साथ I" (क़ुरआन, 4:36)


पड़ोसी के साथ सद-व्यवहार के कई कारण हैं- एक विशेष बात यह है कि मनुष्य को हानि पहुंचने की आशंका भी उसी व्यक्ति से अधिक होती है, जो निकट हो। इसलिए उसके सम्बन्ध को सुदृढ़ और अच्छा बनाना एक महत्वपूर्ण धार्मिक कर्तव्य है ताकि पड़ोसी सुख और प्रसन्ता का साधन हो, न कि दुख और कष्ट का कारण।

पड़ोसी के साथ अच्छा व्यवहार करने के सम्बन्ध में जो ईश्वरीय आदेश अभी प्रस्तुत किया गया है, उसके महत्व को पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) ने विभिन्न ढंग से बताया हैं और आपने स्वयं भी उस पर अमल किया है।

एक दिन आप अपने मित्रों के बीच विराजमान थे। उनसे फरमाया-’’ख़ुदा की कसम, वह मोमिन नहीं !’’ इस वाक्य को आपने तीन बार बल देकर कहा तो मित्रों ने पूछा- ’’कौन, ऐ अल्लाह के रसूल?’’ आपने फ़रमाया- ’’वह जिसका पड़ोसी उसकी शरारतों से सुरक्षित न हो’’।

एक और अवसर पर आपने फरमाया:

‘‘जो ख़ुदा पर और क़यामत पर ईमान रखता है, उसको चाहिए कि अपने पड़ोसी की रक्षा करें।’’

एक बार आपके एक साथी ने आपसे शिकायत की, कि "ऐ अल्लाह के रसूल! मेरा पड़ोसी मुझे सताता हैं।" आपने फरमाया- ’’जाओ, धैर्य से काम लो।’’ इसके बाद वह फिर आया और शिकायत की। आपने फरमाया- ’’जाकर तुम अपने घर का सामान निकालकर सड़क पर डाल दो।’’ साथी ने ऐसा ही किया। आने-जाने वाले उनसे पूछते, तो वह उनसे सारी बातें बयान कर देते। इस पर लोगों ने उनके पड़ोसी को आड़े हाथों लिया तो उसे बड़ी लज्जा की अनुभूति हुई। अस्तु, वह अपने पड़ोसी को मनाकर दोबारा घर में वापस लाया और वादा किया कि अब वह उसे न सताएगा।

मेरे ग़ैर-मुस्लिम भाई इस घटना को पढ़कर चकित रह जाएंगे और सोचेंगे कि क्या सचमुच एक मुसलमान को इस्लाम धर्म मे इतनी सहनशीलता की ताकीद हैं और क्या वास्तव में वह ऐसा कर सकता है। हाँ, निस्संदेह इस्लाम धर्म और रसूले करीम (सल्ल0) ने ऐसी ही ताकीद फरमाई है और इस्लाम के सच्चे अनुयायी इसके अनुसार अमल भी करते हैं, जैसा कि ऊपर की घटना से प्रकट है। अब भी ऐसे पवित्र व्यक्ति इस्लाम के अनुयाईयों में मौजूद हैं जो इन सब बातों को सम्पूर्ण रूप से कार्यान्वित करते हैं, ये ऐसे लोग हैं जिन्हे सिर-आंखों पर बिठाया जाना चाहिए। मेरे कुछ भाई इस भ्रम में रहते हैं कि पड़ोसी का अर्थ केवल मुसलमान पड़ोसी ही है, ग़ैर-मुस्लिम पड़ोसी नहीं। उनके इस भ्रम को दूर करने के लिए एक ही घटना लिख देना पर्याप्त होगा।

एक दिन हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर (रज़ि0) ने एक बकरी ज़ब्ह की। उनके पड़ोस में एक यहूदी भी रहता था। उन्होने अपने घरवालों से पूछा- ’’क्या तुम ने यहूदी पड़ोसी का हिस्सा इसमें से भेजा है? क्योंकि अल्लाह के रसूल (सल्ल0) से मुझे इस सम्बन्ध में बार-बार यह सुनने का अवसर प्राप्त हुआ है कि हर एक पड़ोसी का हम पर हक है।’’

यही नहीं कि पड़ोसी के सम्बन्ध मे पवित्र क़ुरआन के इस पवित्र आदेश का समर्थन हजरत मुहम्मद (सल्ल0) ने ज़बानी फरमाया हो, बल्कि आपके जीवन की घटनाएं भी इसका समर्थन करती हैं।

एक बार कुछ फ़ल हज़रत रसूले करीम (सल्ल0) के पास उपहार स्वरूप आए। आपने सर्वप्रथम उनमें से एक भाग अपने यहूदी पड़ोसी को भेजा और बाकी भाग अपने घर के लोगों को दिया।

मैं यह बात दावे से कह सकता हूं कि निस्सन्देह धर्मों में परस्पर मेल-मिलाप की शिक्षा मौजूद है, परन्तु जितनी ज़बरदस्त ताकीद पड़ोसी के सम्बन्ध में इस्लाम धर्म में है, कम से कम मेंने किसी और धर्म में नही पाई।


निस्संदेह अन्य धर्मों में हर एक मनुष्य को अपने प्राण की तरह प्यार करना, अपने ही समान समझना, सब की आत्मा में एक ही पवित्र ईश्वर के दर्शन करना आदि लिखा है, किन्तु स्पष्ट रूप से अपने पड़ोसी के साथ अच्छा व्यवहार करने और उसके अत्याचारों को भी धैर्यपूर्वक सहन करने के बारे में जो शिक्षा पैग़म्बरे इस्लाम ने खुले शब्दो में दी है, वह कहीं और नही पाई जाती । अपने पड़ोसी से दुर्व्यवहार की जितनी बुराई रसूले करीम (सल्ल0) ने बयान फरमाई है और उसे जितना बड़ा पाप ठहराया है, किसी और धर्म में उसका उदाहरण नहीं मिलता।

इसलिए सत्यता यही है कि पड़ोसी के अधिकारों को इस प्रकार स्वीकार करने से इस्लाम की यह शान बहुत बुलन्द नज़र आती है। इस्लाम का दर्जा इस सम्बन्ध में बहुत ऊंचा है। यह शिक्षा इस्लाम धर्म के ताज में एक दमकते हुए मोती के समान है और इसके लिए इस्लाम की जितनी भी प्रशंसा की जाए कम है।